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________________ ३२६ समवायांग सूत्र कहते हैं। यहाँ दशा शब्द का अर्थ अध्ययन विशेष है। इसमें तीन वर्ग हैं। पहले वर्ग में दस अध्ययन हैं। दूसरे वर्ग में तेरह और तीसरे वर्ग में दस अध्ययन हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार देवलोकों में जघन्य स्थिति इकत्तीस सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है। ये जघन्य दो और उत्कृष्ट पांच भव करके मोक्ष चले जाते हैं। सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देवों की अजघन्य अनुत्कृष्ट (जघन्य उत्कृष्ट के बिना) स्थिति तेतीस सागरोपम की ही होती है। वे सब देव एक भवावतारी (एक मनुष्य का भव करके मोक्ष जाने वाले) ही होते हैं। वे वहाँ से चव कर उत्तम कुल में मनुष्य जन्म लेकर और फिर दीक्षा अङ्गीकार करके मोक्ष चले जाते हैं। नोट - टीकाकार का कथन है कि-अध्ययनों के समूह को 'वर्ग' कहते हैं। इसमें तीन वर्ग हैं। इसीलिये उद्देशनकाल भी तीन ही होने चाहिए । नन्दी सूत्र में भी तीन का ही उल्लेख है किन्तु यहाँ उद्देशन काल दस कहने का क्या अभिप्राय है यह समझ में नहीं आता? शायद लिपि प्रमाद हो सकता है। से किं तं पण्हावागरणाणि? पण्हावागरणेसु अद्वत्तरं पसिणसयं अट्टत्तरं अपसिणसयं, अट्टत्तरं पसिणापसिणसयं, विजाइसया, णागसुवण्णेहिं सद्धिं दिव्वा संवाया आघविति, पण्हावागरणदसासु णं ससमय परसमय पण्णवय पत्तेयबुद्ध विविहत्थभासाभासियाणं, अइसयगुण उवसमणाणप्पगार आयरियभासियाणं, वित्थरेण वीर महेसीहिं विविहवित्थरभासियाणं च जगहियाणं, अहागंगुटुबाहुअसिमणि खोमआइच्चमाइयाणं विविहमहापसिण विजामणपसिणविजादेवयपओग पहाणगुणप्पगासियाणं, सब्भूय दुगुणप्पभाव णरगण मइविम्हयकराणं, अइसयमईयकाल समयदमसमतित्थकरुत्तमस्स ठिइकरणकारणाणं दुरहिगम दुरवगाहस्स सव्वसव्वण्णुसम्मयस्स अबुहजणविबोहणकरस्स पच्चक्खय पच्चयकराणं, पण्हाणं विविहगुण महत्था जिणवरप्पणीया आघविजंति । पण्हावागरणेसु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा जाव संखेज्जाओ संग्गहणीओ, से णं अंगट्टयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पण्णत्ता, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा जाव चरणकरणपरूवणया आघविनंति, से तं पण्हावागरणाई ॥ १० ॥ ___कठिन शब्दार्थ - अट्टत्तरसयं - १०८, पसिणापसिण - प्रश्नाप्रश्न, विज्जाइसया - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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