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________________ बारह अंग सूत्र ३१५ अभ्यास किया था। इसीलिये मूल पाठ में उनके लिये "सुयपरिग्गहा" (सूत्र के ज्ञाता) शब्द दिया है। गृहस्थावस्था में रहता हुआ व्यक्ति किस प्रकार उत्कृष्ट श्रावक धर्म का पालन करता हुआ एवं आत्मविकास करता हुआ मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। यह इन श्रावकों के जीवन से भली भाँति ज्ञात हो सकता है। ___(इन श्रावकों के जीवन का विस्तृत वर्णन हिन्दी में श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह बीकानेर के तीसरे भाग के दसवें बोल संग्रह के बोल नं. ६८५ में एवं जैन संस्कृति रक्षक संघ द्वारा प्रकाशित उपासकदशांग सूत्र में दिया गया है। जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिए) प्रश्न - क्या श्रावक श्राविका का सूत्र पढ़ना शास्त्र सम्मत है ? उत्तर - हाँ ! श्रावक श्राविका का शास्त्र पढ़ना शास्त्र सम्मत है। जैसा कि - इन दस श्रावकों के वर्णन में "सुयपरिग्गहा, तवोवहाणाइं" अर्थात् श्रावकों का शास्त्र ग्रहण करना तथा उस विषयक उपधान आदि तप करना इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि - श्रावक शास्त्र पढ़ते थे। उत्तराध्ययन सूत्र में समुद्रपालीय नामक इक्कीसवें अध्ययन की दूसरी गाथा में पालित श्रावक का वर्णन करते हुये लिखा है - णिग्गंथे पावयणे, सावए से वि कोविए । . अर्थात् वह पालित श्रावक निर्ग्रन्थ प्रवचन में कोविद (पण्डित) था। इसी सूत्र के बाईसवें अध्ययन में राजीमती के लिये शास्त्रकार ने "बहुस्सुया" शब्द का प्रयोग किया है। गाथा इस प्रकार है - सा पव्वईया संती, पव्वावेसी तहिं बहुं । सयणं परियणं चेव, सीलवंता बहुस्सुआ ॥ ३२ ॥ .. .. अर्थ - गृहस्थ अवस्था में रहते हुये भी राजीमती बहुश्रुत (बहुत शास्त्रों की ज्ञाताजानकार) थी। उस बहुश्रुता और शीलवती राजीमती ने दीक्षा लेकर वहाँ और भी अपने स्वजन और परिजन को दीक्षा दिलाई ।। ये दोनों पाठ भी यही सिद्ध करते हैं कि श्रावक श्राविका सूत्र पढ़ते थे और यह बात शास्त्रकारों को अभिमत है। ज्ञातासूत्र के बारहवें उदक ज्ञात नामक अध्ययन में सुबुद्धि प्रधान, जो कि श्रावक था। उसने जितशत्रु राजा को केवली प्ररूपित धर्म का उपदेश दिया। जिससे राजा जितशत्रु ने समकित की प्राप्ति की और सुबुद्धि प्रधान से श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये। फिर जितशत्रु राजा ने और सुबुद्धि प्रधान ने स्थविर भगवन्तों के पास दीक्षा अङ्गीकार की और आठों कर्मों का क्षय कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हो गये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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