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________________ प्रकीर्णक समवाय २८९ भावार्थ - असंख्यात द्वीप समुद्रों के मध्य में स्थित यह जम्बूद्वीप १००००० योजन का विस्तृत कहा गया है॥ १००००० ॥ इस जम्बूद्वीप के चारों तरफ घिरे हुए लवणसमुद्र का चक्रवाल विष्कम्भ - विस्तार दो लाख योजन का कहा गया है ॥ २०००००॥ भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी के उत्कृष्ट तीन लाख सत्ताईस हजार श्राविकाएं थी ॥ ३०००००॥ धातकीखण्ड द्वीप का चक्रवाल विष्कम्भ -विस्तार चार लाख योजन का कहा गया है॥ ४००००० ॥ लवणसमुद्र के पूर्व के चरमान्त से पश्चिम के चरमान्त तक पांच लाख योजन का अन्तर कहा गया है अर्थात् पूर्व के लवणसमुद्र की चौड़ाई दो लाख योजन है और इसी तरह पश्चिम के लवणसमुद्र की चौड़ाई दो लाख योजन है और बीच में एक लाख योजन का जम्बूद्वीप है, इस प्रकार लवणसमुद्र के पूर्व के चरमान्त से पश्चिम के चरमान्त तक पांच लाख योजन का अन्तर है। ५००००० ॥ विवेचन - जैसे रथ के चक्र के मध्यभाग को छोड़ कर उसके आरों की चौड़ाई चारों तरफ एक सी होती है। उसी प्रकार जम्बूद्वीप लवणसमुद्र के मध्यभाग में अवस्थित होने से चक्र के मध्य भाग जैसा है। लवण समुद्र की चौडाई जम्बूद्वीप के चारों तरफ दो दो लाख योजन है अतः उसे चक्रवाल विष्कम्भ कहा गया है। भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी छ पुव्व सयसहस्साइं रायमाझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥ ६०००००॥ जंबूद्दीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्लाओ वेइयंताओ धायईखंड चक्कवालस्स पच्चथिमिल्ले चरमंते सत्त जोयण सयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ॥ ७०००००॥ माहिंदे णं कप्पे अट्ठ विमाणावास सयसहस्साइं पण्णत्ताइं ॥ ८०००००॥ पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता पंचमीए पुढवीए णेरइएसु णेरइयत्ताए उववण्णे ॥ १०००००० ॥ कठिन शब्दार्थ - रायमझे वसित्ता - राज्य में रह कर, वेइयंताओ - वेदिका से। भावार्थ - प्रथम चक्रवर्ती श्री भरत महाराज ने छह लाख पूर्व तक राज्य में रह कर यानी राज्य भोग कर फिर मुण्डित होकर एवं गृहवास का त्याग कर दीक्षा अङ्गीकार की॥ ६००००० ॥ इस जम्बूद्वीप की पूर्व दिशा की वेदिका से धातकी खण्ड चक्रवाल के पश्चिम के चरमान्त तक सात लाख योजन का अन्तर कहा गया है अर्थात् एक लाख योजन का जम्बूद्वीप है, दो लाख योजन का लवणसमुद्र है और चार लाख योजन का धातकीखण्ड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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