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समवायांग सूत्र
योजन लम्बे चौड़े कहे गये हैं। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में विमान ५००-५०० योजन ऊंचे कहे गये हैं ॥ ५०० ॥
विवेचन - अवसर्पिणी काल में जीवों का आयुष्य, बल, बुद्धि, पराक्रम, पुरुषार्थ, अवगाहना (शरीर की ऊंचाई) सब घटते-घटते जाते हैं। तदनुसार तीर्थङ्करों के शरीर की अवगाहना भी घटती जाती है। पहले तीर्थङ्कर के शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष की होती है। फिर उनकी ऊंचाई के घटने का क्रम इस प्रकार है -
दूसरे से लेकर नवमें तीर्थङ्कर तक पचास-पचास धनुष घटती है। दसवें से. चौदहवें तक दस-दस धनुष घटती है। पन्द्रहवें से लेकर बाईसवें तक पांच-पांच धनुष घटती है। फिर ऊंचाई धनुषों की नहीं किन्तु हाथ परिमाण रह जाती है। यथा -
(१) पहले तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव के शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष की थी, (२) ४५० (३) ४०० (४) ३५० (५) ३०० (६) २५० (७) २०० (८) १५० (९) १०० (१०) ९० (११) ८० (१२) ७० (१३) ६० (१४) ५० (१५) ४५ (१६) ४० (१७) ३५ . (१८) ३० (१९) २५ (२०) २० (२१) १५ (२२) १० धनुष (२३) ९ हाथ (२४) ७ . हाथ। इस प्रकार क्रमशः तीर्थङ्करों की अवगाहना होती है। उत्सर्पिणी काल के तीर्थङ्करों के शरीर की अवगाहना उपरोक्त नियम के अनुसार क्रमशः बढ़ती जाती है।
यथा - पहले तीर्थङ्कर की अवगाहना सात हाथ यावत् चौबीसवें तीर्थङ्कर की अवगाहना ५०० धनुष होती है। यह नियम पांच भरत और पांच ऐरवत इन दस क्षेत्रों में होने वाले तीर्थङ्करों के लिये है। ___पांच महाविदेह क्षेत्रों में न तो उत्सर्पिणी काल होता है और न ही अवसर्पिणी काल होता है। किन्तु नो उत्सर्पिणी नो अवसर्पिणी काल होता है। अर्थात् सदा अवट्ठिया (अवस्थित) काल रहता है। वहाँ अवसर्पिणी काल के चौथे आरे सरीखे भाव रहते हैं (चौथा आरा नहीं)। इसलिये वहाँ के तीर्थङ्करों की अवगाहना घटती बढ़ती नहीं है। सब तीर्थङ्करों के शरीर की अवगाहना ५०० धनुष होती है और आयुष्य ८४ लाख पूर्व का होता है।
सणंकुमार माहिदेसु कप्पेसु विमाणा छ जोयणसयाई उडुं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। चुल्लहिमवंत कूडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ चुल्लहिमवंतस्स वासहर पव्वयस्स समधरणितले एस णं छ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। एवं सिहरी कूडस्स वि। पासस्स णं अरहओ छ सया वाईणं सदेवमणुयासुरे लोए वाए अपराजियाणं
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