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________________ २७८ - समवायांग सूत्र भावार्थ - चौथे तीर्थङ्कर भगवान् सम्भवनाथ स्वामी के शरीर की ऊंचाई ४०० धनुष थी। सभी निषध और नीलवंत वर्षधर पर्वत ४००-४०० योजन के ऊंचे और ४००-४०० गाऊ (१०० योजन) के ऊंडे कहे गये हैं। सब वक्षस्कार पर्वत निषध और नीलवंत वर्षधर पर्वत के पास ४००-४०० योजन ऊंचे और ४००-४०० गाऊ (१०० योजन) धरती में ऊंडे कहे गये हैं। आणत और प्राणत इन दो देवलोकों में ४०० विमान कहे गये हैं। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के देव और मनुष्यों के लोक में अर्थात् परिषद में, वाद में अपराजित ४०० वादियों की उत्कृष्ट सम्पदा थी॥ ४०० ॥ विवेचन - अढ़ाई द्वीप में पांच निषध पर्वत हैं और पांच ही नीलवंत पर्वत हैं। वे सभी ४००-४०० योजन के ऊँचे हैं और ४००-४०० कोस ऊंडे जमीन के भीतर हैं। अर्थात् १०० योजन के ऊंडे हैं। पांच मेरु पर्वतों को छोड़ कर प्रायः यह नियम है कि जितने भी पर्वत हैं वे सब जितने योजन ऊंचे हैं उसका चौथाई भाग जमीन के अन्दर ऊंडे होते हैं। निशीथचूर्णी पीठिका की ५२वीं गाथा में इस प्रकार वर्णन मिलता है - . अंजणग दहिमुखाणं, कुंडल रुयगं च मंदराणं च। ओगो होउ सहस्सं, सेसापादं समोगाढा ॥५२॥ इससे अंजनक, दधिमुख दोनों वलयाकार पर्वतों को मेरु के समान हजार (१०००) योजन गहरा ही माना है। यह गाथा भी बहुलता की अपेक्षा से ही समझी जाती है। जो पर्वत गोपुच्छाकार हैं उनके चतुर्थांश गहराई की आवश्यकता नहीं रहती। हजार योजन गहराई मानने पर बाधा नहीं आती है। जो पल्याकार अर्थात् समान बाहाल्य वाले होते हैं, उनकी गहराई तो चतुर्थांश होती ही है। ऊपर दिए गए प्रायः शब्द में इन पर्वतों का भी वर्णन समझ लेना चाहिए। दशवें स्थान में कुंडल एवं रुचक पर्वत को हजार योजन गहरा, दस हजार का चौडा बताया है एवं समवायांग की टीका में चौरासी हजार योजन की ऊंचाई बताई है जो उचित ही प्रतीत होती है। ___ परमतावलम्बियों के साथ शास्त्रार्थ अर्थात् चर्चा करने को 'वाद' कहते हैं। वाद करने वाले को वादी कहते हैं। वाद भी एक प्रकार की लब्धि है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चौदह हजार सन्तों में से ४०० सन्त ऐसे वादी थे, जो देव, मनुष्य और असुरों की सभा में किसी से भी पराजित नहीं होते थे। अजिए णं अरहा अद्धपंचमाइं धणुसयाई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था। सगरे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी अद्धपंचमाइं धणुसयाई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था ॥ ४५० ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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