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समवाय १००
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दुगुना कर देने पर (२१. ४ २ - ५.३१) पांच योजन और एक योजन के इकसठ भागों में से पैंतीस भाग प्रमाण वृद्धि प्रथम मण्डल से दूसरे मण्डल की सिद्ध हो जाती है। इसी प्रकार दूसरे मण्डल के विष्कम्भ में ५३. को मिला देने पर ( ९९६४५ ३१.५.३.) निन्यानवें हजार छह सौ इकावन योजन और एक योजन के इकसठ भागों में से नौ भाग-प्रमाण विष्कम्भ तीसरे मण्डल. का निकल आता है। निन्यानवें हजार में ऊपर जो प्रथम मण्डल में ६४० योजन की, दूसरे मण्डल में ६४५३० योजन की और तीसरे मण्डल में ६५१ १. योजन की वृद्धि होती है, उसे सूत्र में "सातिरेक" और 'साधिक' पद से सूचित किया गया है, जिसका अर्थ निन्यानवें हजार योजन से कुछ अधिक होता है।
रत्नप्रभा पृथ्वी का प्रथम खरकाण्ड १६ हजार योजन का मोटा है। १६ हजार में १६ काण्ड हैं। प्रत्येक काण्ड १-१ हजार योजन का मोटा है। उसमें अञ्जन काण्ड १० वाँ है। उसका नीचे का भाग यहाँ से १० हजार योजन दूर है। प्रथम रत्नकाण्ड के प्रथम १०० योजनों के बाद व्यन्तर देवों के क्रीडा स्थान रूप नगर है। इन सौ को दस हजार में से घटा देने पर (१०,०००-१०० = ९९००) नौ हजार नौ सौ योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है।
सौवां समवाय . दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं. राइंदियसएणं अद्धछठेहिं भिक्खासएहिं अहासुत्तं जाव आराहिया वि भवइ । सयभिसया णक्खत्ते एक्कसय तारे पण्णत्ते। सुविही पुष्पदंते णं अरहा एगं धणूसयं उर्दू उच्चत्तेणं होत्था। पासे णं अरहा पुरिसादाणीए एक्कं वाससयं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। एवं थेरे वि अज्जसुहमे। सव्वे वि णं दीहवेयड्ड पव्वया एगमेगं गाउयसयं उड्डूं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। सव्वे वि णं चुल्लहिमवंत सिहरी वासहर पव्वया एगमेगं जोयणसयं उर्दू उच्चत्तेणं पण्णत्ता, एगमेगं गाउयसयं उव्वेहेणं पण्णत्ता। सव्वेवि णं कंचणग पव्वया एगमेगं जोयणसयं उढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता, एगमेगं गाउयसयं उव्वेहेणं पण्णत्ता एगमेगं जोयणसयं मूले विक्खंभेणं पण्णत्ता ॥१०० ॥ . कठिन शब्दार्थ - दसदसमिया भिक्खुपडिमा - दशदशमिका भिक्षु प्रतिमा, अद्धछटेहिं भिक्खासएहिं - ५५० भिक्षा की दत्तियों से, सयभिसया - शतभिषक।
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