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________________ समवाय ८७ २५७ चरमंते एस णं सत्तासीइं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। छण्हं कम्मपयडीणं आइम उवरिल्ल वज्जाणं सत्तासीइं उत्तरपयडीओ पण्णत्ताओ। महाहिमवंत कूडस्स णं उवरिल्लाओ चरमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरमंते एस. णं सत्तासीइ जोयण सयाइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते एवं रुप्पी कूडस्स वि ॥ ८७ ॥ कठिन शब्दार्थ - आवास पव्वयस्स - आवास पर्वत के, उत्तरिल्ले चरमंते - उत्तरदिशा के चरमान्त तक, उत्तर पयडीओ - उत्तर प्रकृतियाँ, महाहिमवंत कूडस्स - महाहिमवंत कूट के। __ भावार्थ - मेरु पर्वत के पूर्व के चरमान्त से वेलंधर नागराजा के गोस्तूभ आवास पर्वत के पश्चिम के चरमान्त तक ८७ हजार योजन का अन्तर कहा गया है। मेरु पर्वत के दक्षिण दिशा के चरमान्त से दगभास आवास पर्वत के उत्तर दिशा के चरमान्त तक ८७ हजार योजन का अन्तर कहा गया है.। इसी प्रकार मेरु पर्वत के पश्चिम के चरमान्त से शंख आवास पर्वत के पूर्व के चरमान्त तक और इसी प्रकार मेरु पर्वत के उत्तर के चरमान्त से दगसीम आवास 'पर्वत के दक्षिण चरमान्त तक ८७ हजार योजन का अन्तर कहा गया है। ज्ञानावरणीय कर्म की पांच और अन्तराय की पांच, इन दस प्रकृतियों को छोड़ कर बाकी छह कर्मों की सत्यासी उत्तर प्रकृतियाँ कही गई हैं अर्थात् दर्शनावरणीय की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, आयुष्य की ४, नाम कर्म की ४२ और गोत्र कर्म की २ ये सब मिला कर ८७ प्रकृतियाँ होती हैं। महाहिमवंत कूट के ऊपर के चरमान्त से रत्नप्रभा नरक के आठवें सौगन्धिक काण्ड का नीचे का चरमान्त तक ८७ सौ योजन का अन्तर कहा गया है। इसी प्रकार रुक्मी कूट से भी सौगन्धिक काण्ड के नीचे चरमान्त तक ८७ सौ योजन का अन्तर कहा गया है।। ८७ ॥ विवेचन - मेरु पर्वत जम्बू द्वीप के ठीक मध्य भाग में अवस्थित है और वह भूमितल पर १०००० योजन के विस्तार वाला है। मेरु पर्वत के इस विस्तार को जम्बूद्वीप के १ लाख योजन में से घटा देने पर ९०,००० योजन शेष रहते हैं। उसके आधे ४५००० योजन पर जम्बूद्वीप का पूर्वी भाग है। इसी प्रकार दक्षिणी भाग, पश्चिमी भाग और उत्तरी भाग भी प्राप्त होता है। इससे आगे लवणसमुद्र में पूर्व मे ४२००० योजन दूर जाने पर वेलंधर नागराज का गोस्थूभ आवास पर्वत है। इसी प्रकार दक्षिण में दगभास आवास पर्वत है और पश्चिम में शंख आवास पर्वत है तथा उत्तर में उतनी ही दूरी पर दकसीम आवास पर्वत हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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