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________________ समवाय ८४ पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्व दुक्खप्पहीणे । तिविट्ठे णं वासुदेवे चउरासीइं वाससयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता अप्पइट्ठाणे णरए णेरइयत्ताए उववण्णे । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो चउरासीइ सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्ताओ । सव्वे वि णं बाहिरया मंदरा चउरासीइं चउरासीइं जोयण सहस्साइं उड्डुं उच्चत्तेणं पण्णत्ता । सव्वे वि णं अंजणग पव्वया चउरासीइं चउरासीइं जोयणसहस्साइं उड्डुं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। हरिवास रम्मग वासियाणं जीवाणं धणुपिट्ठा चउरासीइं जोयणसहस्साइं सोलस जोयणाई चत्तारि य भागा जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ता । पंकबहुलस्स णं कंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं चउरासीइं जोयणसयसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । विवाह पण्णत्तीए णं भगवईए चउरासीइं पयसहस्सा . पयग्गेणं पण्णत्ता । चउरासीइं णागकुमारावास सयसहस्सा पण्णत्ता । चउरासीइं पइण्णगसहस्साइं पण्णत्ता । चउरासीइं जोणिप्पमुह सयसहस्सा पण्णत्ता । पुव्वाइयाणं सीसपहेलिया पज्जवसाणाणं सद्वाणद्वाणंतराणं चउरासीए गुणकारे पण्णत्ते। उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स चउरासीइं गणा चउरासीइं गणहरा होत्था । उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स उसभसेण पामोक्खाओ चउरासीइ समण साहस्सीओ होत्था । सव्वे वि चउरासीइं विमाणावास सयसहस्सा सत्ताणउइं च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवतीतिमक्खायं ॥ ८४ ॥ Jain Education International २५१ कठिन शब्दार्थ - चउरासीइं णिरयावाससयसहस्सा ८४ लाख नरकावास, अंजणग पव्वयां - अंजनक पर्वत, पंकबहुलस्स कंडस्स- पंक बहुल काण्ड, पइण्णग - प्रकीर्णक, जोणिप्पमुह - योनिप्रमुख - जीवोत्पत्ति के स्थान, पुव्वाइयाणं सीसपहेलिया पज्जवसाणाणंपूर्व से लेकर शीर्ष प्रहेलिका तक, उसभसेण पामोक्खाओ - ऋषभसेन प्रमुख आदि । भावार्थ - सातों नरकों के मिला कर सब ८४ लाख नरकावास होते हैं। पहली नरक में ३० लाख, दूसरी में २५ लाख, तीसरी में १५ लाख, चौथी में १० लाख, पांचवीं में ३ लाख, छठी में पांच कम एक लाख और सातवीं में ५, ये सब मिला कर ८४ लाख नरकावास होते हैं। कौशलीक ऋषभदेव भगवान् ८४ लाख पूर्व वर्ष की सम्पूर्ण आयुष्य भोग कर सिद्ध बुद्ध यावत् सर्वदुःखों से मुक्त हुए । इसी तरह भरत चक्रवर्ती, बाहुबली, ब्राह्मी और सुन्दरी ये, सभी ८४-८४ लाख पूर्व वर्ष की पूर्ण आयुष्य भोग कर सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त हुए । ग्यारहवें तीर्थङ्कर श्री श्रेयांशनाथ भगवान् ८४ लाख वर्ष का पूर्ण आयुष्य भोग कर सिद्ध बुद्ध हुए For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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