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________________ समवाय८३ २४९ तयासीवां समवाय - समणे भगवं महावीरे बासीइ राइंदिएहिं वीइक्कंतेहिं तेयासीइमे राइदिए वट्टमाणे गब्भाओ गब्भं साहरिए। सीयलस्स णं अरहओ तेसीइ गणा तेसीइ गणहरा होत्था। थेरे णं मंडियपुत्ते तेसीइं वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । उसभे णं अरहा कोसलिए तेसीइं पुव्वसयसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं जाव पव्वइए । भरहे णं राया चाउरंत चक्कवट्टी तेसीइं पुव्वसय सहस्साइं अगारमझे वसित्ता जिणे जाए केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी ॥८३ ॥ कठिन शब्दार्थ - तेयासीइमे - तयासीवीं, जिणे जाए - जिन हुए, सव्वण्णू - सर्वज्ञ, सव्वभाव - दरिसी - सर्वभावदर्शी ।। ___. भावार्थ - ८२ रात दिन बीत जाने पर तयासीवीं रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का देवानन्दा की कुक्षि से त्रिशला महारानी की कुक्षि में संहरण हुआ था। श्री शीतलनाथ भगवान् के ८३ गण और ८३ गणधर थे। . . महावीर स्वामी के छठे गणधर श्री मण्डित पुत्र ८३ वर्ष की पूर्ण आयुष्य भोग कर सिद्ध हुए यावत् सब दुःखों से रहित हुए। कौशलिक भगवान् ऋषभदेव स्वामी ८३ लाख पूर्व वर्ष तक गृहस्थवास में रह कर फिर द्रव्य भाव से मुण्डित होकर प्रव्रजित हुए। चारों दिशाओं के विजेता भरत चक्रवर्ती ८३ लाख पूर्व वर्ष तक गृहस्थवास में रह कर राग द्वेष के विजेता जिन हुए। केवली सर्वज्ञ सर्वदर्शी हुए ॥ ८३ ती - विवेचन - ८२ रात्रि दिन देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ में रहने के बाद शक्रेन्द्र ने विचार किया कि - पूर्व भव के मद के कारण तीर्थङ्कर का जीव अन्य कुल में आ तो जाता है किन्तु जन्म तो क्षत्रिय कुल में ही होता है। इसलिये शक्रेन्द्र ने अपने दूत हरिनैगमेषी को गर्भसंहरण की आज्ञा दी तब ८३ वीं रात्रि में हरिनैगमेषी देव ने देवानन्दा की कुक्षि से गर्भ का संहरण कर के क्षत्रियकुण्डपुर के राजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला के गर्भ में रखा। इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के जीव के गर्भ संहरण हुआ। तीर्थङ्कर भगवान् के जीव का गर्भ संहरण होना एक आश्चर्यजनक घटना है। इसलिये इस अवसर्पिणीकाल में घटित होने वाले दस आश्चर्यों में से एक आश्चर्य है। ऐसे आश्चर्य अनन्त काल में किसी एक अवसर्पिणी काल में घटित होते हैं। इन दस आश्चर्यों का वर्णन ठाणाङ्ग सूत्र के दसवें ठाणे में है। जिसका हिन्दी अनुवाद श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह के तीसरे भाग में हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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