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समवाय६९
२२१ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwnonveenies उत्पन्न होते हैं। उक्त चारों खण्डों के तीन तीन अन्तर नदियाँ और चार पर्वतों से विभाजित होने पर बत्तीस खण्ड हो जाते हैं। इन बत्तीस खण्डों को चक्रवर्ती जीतता है। अर्थात् विजय करता है। इसलिए इन खण्डों को बत्तीस विजय कहते हैं। उन में चक्रवर्ती रहता है। जिस नगर में चक्रवर्ती रहता है उसको राजधानी कहते हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप के महाविदेह में सब मिलाकर बत्तीस विजय और बत्तीस राजधानियाँ होती हैं। भरत और ऐरवत क्षेत्र ये दो विजय और दो राजधानियों को मिला देने से चौतीस विजय और चौतीस राजधानियाँ हो जाती है। जम्बूद्वीप से दुगुनी दुगुनी रचना धातकीखण्ड द्वीप में और पुष्करवरद्वीपार्द्ध में है। अतः उनकी संख्या (३४४२-) ६८ हो जाती है। इसी बात को ध्यान में रख कर उक्त सूत्र में ६८ विजय, ६८ राजधानी, ६८ तीर्थङ्कर, ६८ चक्रवर्ती, ६८ बलदेव और ६८ वासुदेवों के होने का निरूपण किया गया है। पांचों महाविदेहों में कम से कम २० तीर्थङ्कर सदा विद्यमान रहते हैं
और अधिक से अधिक एक सौ साठ तक तीर्थङ्कर उत्पन्न हो जाते हैं। ये अपने अपने क्षेत्र में ही विचरण करते हैं। उक्त संख्या में पांचों मेरु सम्बन्धी पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्रों को मिलाने से एक सौ सित्तर (१६०+१०) तीर्थङ्कर एक साथ उत्पन्न हो सकते हैं। एक समय में चार तीर्थङ्कर जन्म ले सकते हैं।
चक्रवर्ती और वासुदेवों के विषय में ऐसा समझना चाहिये कि - जिस विजय में चक्रवर्ती विद्यमान होते हैं उस समय उस विजय में वासुदेव नहीं होता। यही बात वासुदेवों के लिए भी समझनी चाहिये। अर्थात् जिस विजय में वासुदेव विद्यमान होते हैं। उस समय में वहाँ चक्रवर्ती नहीं होते हैं। अत: कम से कम चार चक्रवर्ती और चार वासुदेव महाविदेह क्षेत्र में हर समय में विद्यमान होते हैं। इस अपेक्षा से अधिक से अधिक एक सौ पचास चक्रवर्ती एक साथ हो सकते हैं और इसी तरह १५० और वासुदेव एक साथ हो सकते हैं। इस सूत्र में ६८ चक्रवर्ती और ६८ वासुदेव का उत्पन्न होने का कहा है किन्तु इतने एक समय में ऐसा विशेषण नहीं दिया। इसीलिये उक्त बात में किसी प्रकार का विरोध नहीं आता है। काल भेद से तो वहाँ उत्पन्न होते ही हैं।
उनसित्तरवां समवाय समयखित्ते णं मंदरवजा एगूणसत्तरि वासा, वासहरपव्वया पण्णत्ता तंजहा -- पणतीसं वासा, तीसं वासहरा, चत्तारि उसुयारा। मंदरस्स पव्वयस्स पच्चथिमिल्लाओ
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