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________________ २१६ समवायांग सूत्र MMONTHIMIRMATIMAMANAMAHAKAMANANAMANNAHawwwIMMITHAIRMANNAMwwwwwwITRINATHAHANI जगह समान, विक्खंभुस्सेहेणं - विष्कम्भ उत्सेध-चौडाई और ऊंचाई में, चउसट्ठिलट्ठीए महग्घे मुत्तामणिहारे - चौसठ लडा महामूल्यवान् मोती और मणियों का हार। भावार्थ - अष्ट अष्टमिका भिक्षुप्रतिमा चौसठ दिनों में पूर्ण होती है और उसमें २८८ भिक्षा की दत्तियाँ होती है। असुरकुमारों के चौसठ लाख भवन कहे गये हैं अर्थात् असुरकुमारों के दो इन्द्र हैं जिन में से दक्षिण दिशा के चमरेन्द्र के ३४ लाख भवन हैं और उत्तर दिशा के बलीन्द्र के ३० लाख भवन हैं। इस तरह दोनों के मिला कर ६४ लाख भवन होते हैं। असुरकुमारों के इन्द्र चमरेन्द्र के ६४ हजार सामानिक देव कहे गये हैं। आठवें नन्दीश्वर द्वीप के चारों दिशाओं में चार अञ्जन गिरि पर्वत हैं। प्रत्येक अञ्जन गिरि के चारों तरफ चार चार पुष्करिणी हैं। उनके बीच में एक एक दधिमुख पर्वत हैं, वे सब दधिमुख पर्वत पाला के आकार हैं सब जगह समान हैं। चौड़ाई और ऊंचाई में चौसठ हजार योजन के कहे गये हैं। सौधर्म देवलोक में ३२ लाख विमान हैं, ईशान देव लोक में २८ लाख विमान हैं और ब्रह्मलोक देवलोक में ४ लाख विमान हैं, इस प्रकार इन तीनों देवलोकों में ६४ लाख विमान कहे गये हैं। सब चक्रवर्ती राजाओं के चौसठ लड़ा महामूल्यवान् मोती और मणियों का हार होता है ॥ ६४ ॥ _ विवेचन - जिस अभिग्रह-विशेष की आराधना में आठ-आठ दिन के आठ दिनाष्टक लगते हैं, उसे अष्टाष्टमिका भिक्षु प्रतिमा कहते हैं। इसकी आराधना करते हए प्रथम के आठ दिनों में एक-एक भिक्षा (दत्ति) ग्रहण की जाती है। पुनः दूसरे आठ दिनों में दो-दो भिक्षाएँ ग्रहण की जाती हैं। इसी प्रकार तीसरे आदि आठ-आठ दिनों में एक-एक भिक्षा बढाते हुए अन्तिम आठ दिनों में प्रतिदिन आठ-आठ भिक्षाएं ग्रहण की जाती हैं। इस प्रकार चौसठ दिनों में सर्व भिक्षाएँ दो सौ अठासी (८+१६+२४+३२+४०+४८+५६+६४=२८८) हो जाती हैं। पैंसठवां समवाय जंबूहीवे णं दीवे पणसटुिं सूरमंडला पण्णत्ता। थेरे णं मोरियपुत्ते पणसद्धि वासाई अगारवास मज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए । सोहम्म वडिंसयस्स णं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए पणसढेि पणसट्टि भोमा पण्णत्ता। कठिन शब्दार्थ - पणसटुिं - पैंसठ, सूरमंडला - सूर्य मण्डल, थेरे मोरियपुत्ते - सातवें स्थविर-गणधर श्री मौर्यपुत्र, सोहम्म वडिंसयस्स विमाणस्स - सौधर्म देवलोक के बीच में सौधर्मावतंसक विमान, भोमा - भोम-नगर के आकार वाले विशिष्ट स्थान। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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