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________________ समवायांग सूत्र सम्यक्त्व के देने वाले, चारित्र धर्म को देने वाले, श्रुतचारित्र रूप धर्म का उपदेश देने वाले, धर्म के नायक, धर्म रूपी रथ के सारथि, चार गति का अन्त करने वाले, धर्म रूप चक्र को धारण करने वाले अत एव प्रधान चक्रवर्ती रूप, संसार-समुद्र में द्वीप के समान, रक्षक रूप शरणभूत गति रूप, संसार सागर में गिरते हुए प्राणियों के लिये आधार रूप, अप्रतिहत अर्थात् बाधा रहित, पूर्ण ज्ञान दर्शन को धारण करने वाले, छद्मस्थपने से निवृत्त होने वाले, स्वयं राग द्वेष को जीतने वाले, दूसरों को राग द्वेष जीताने वाले, स्वयं संसार समुद्र से तिरे हुए, दूसरों को संसार समुद्र से तिराने वाले, स्वयमेव बोध को प्राप्त करने वाले, दूसरों को बोध प्राप्त कराने वाले, स्वयं कर्म बन्धन से मुक्त होने वाले, दूसरों को कर्म बन्धन से मुक्त कराने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव-कल्याण स्वरूप, निरुपद्रव, अचल-स्थिर, रोग रहित, अनन्त-अन्त रहित, अक्षय-विनाश रहित, बाधा पीड़ा रहित, पुनरागमन रहित, सिद्धिगति रूप शाश्वत स्थान को प्राप्त होने के अभिलाषी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गणिपिटक रूप ये बारह अङ्ग फरमाये हैं। यथा - आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, व्याख्या प्रज्ञप्ति-भगवती, ज्ञाताधर्मकथाङ्ग, उपासकदशाङ्ग, अन्तकृद्दशाङ्ग, अनुत्तरौपपातिकदशाङ्ग, प्रश्नव्याकरण, विपाक सूत्र, दृष्टिवाद। इन बारह अङ्गों में चौथा अङ्ग समवायाङ्ग कहा गया है। उस समवायाङ्ग का यह अर्थ फरमाया है। यथा - किसी अपेक्षा से आत्मा एक है। अनात्मा यानी घट पटादि पदार्थ द्रव्य अपेक्षा से एक है। हिंसादि रूप दण्ड एक है। अहिंसादि रूप अदण्ड एक है। कायिकी आदि अथवा अस्ति रूप क्रिया एक है। योग निरोध रूप अथवा नास्ति रूप अक्रिया एक है। लोक एक है। अलोक एक है। धर्मोस्तिकाय एक है। अधर्मास्तिकाय एक है। पुण्यशुभ कर्म एक है। पाप-अशुभ कर्म एक है। बन्ध एक है। मोक्ष एक है। आस्रव एक है। संवर एक है। वेदना एक है। निर्जरा एक है। विवेचन - समवायाङ्ग सूत्र में एक की संख्या से शुरू करके एक-एक की वृद्धि करते हुए सौ तक बोलों का कथन किया है। ये बोल एकोत्तर वृद्धि के कहलाते हैं। इसके आगे भी अनेक बोल दिये गये हैं। ये अनेकोत्तर वृद्धि के कहलाते हैं। . ____ संसार में मुख्य रूप से दो ही पदार्थ हैं - आत्मा (जीव) और अनात्मा (अजीव) । इन दोनों में भी आत्मा की प्रधानता है। आत्मा ही ज्ञाता और विज्ञाता है। इसीलिये शास्त्रकार ने सर्वप्रथम आत्मा का ही कथन किया है। शास्त्र का प्रारम्भ करते हुए गणधर देव श्री सुधा स्वामी ने फरमाया है - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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