SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवाय ३७ . . १८१ पराक्रम' है। धार्मिक जीवन का मुख्य आधार सम्यक्त्व है। उसके पालन में एवं अतिचार निवारण करने में किसी प्रकार का प्रमाद नहीं करना चाहिये । यद्यपि उत्तराध्ययन सूत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की अपुटु वागरणा (अपृष्ट व्याकरण-प्रश्न पूछे बिना ही शिष्यों के हितार्थ शिक्षा देना) है, तथापि प्रश्नोत्तर रूप से बात सरलता से समझ में आ सकती है इसलिये इस अध्ययन में प्रश्नोत्तर की शैली अपनाई गई है। ७३ प्रश्न और उत्तर हैं। जिनमें चतुर्विध संघ के सभी धार्मिक कार्यों का निरूपण किया गया है। यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि - मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में कोई प्रश्नोत्तर नहीं दिया गया है। मूर्तिपूजा को न तो चतुर्विध संघ के लिये आवश्यक कार्य बतलाया गया है और न उसका फल बतलाया गया है। अतः मूर्तिपूजा आगमानुकूल नहीं है। उसके लिये फूल चढाना, फल चढाना, स्नान कराना आदि अनर्थदण्ड होने से पाप कर्म का बन्ध होता है। चैत्र मास और आसोज मास की पूर्णिमा को पोरिसी छाया ३६ अङ्गल प्रमाण होती है। यह कथन व्यवहार की अपेक्षा समझना चाहिये । निश्चय में तो मेष संक्रान्ति के दिन और .. तुला संक्रान्ति के दिन पौरुषी छाया छत्तीस अङ्गल (३पाद प्रमाण) होती है। जैसा कि - उत्तराध्ययन सूत्र के सामाचारी नामक २६ वें अध्ययन में कहा है - .. "चित्तासोएसु मासेसु, तिपया होइ पोरिसी।" अर्थात् चैत्र और आसोज महीने में पोरिसी की छाया तीन पैर प्रमाण होती है। विशेष - बारह महीनों में पोरिसी छाया कितने कितने अङ्गल की होती है यह बात उत्तराध्ययन सूत्र के २६ वें अध्ययन में बतलाई गई है। जिसका हिन्दी अनुवाद टीकानुसार जैन सिद्धान्त बोल संग्रह के चौथे भाग के बोल नं. ८०३ में विस्तार से खुलासा पूर्वक दिया है। जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिये । सैंतीसवां समवाय कुंथुस्स णं अरहओ सत्ततीसं गणा, सत्ततीसं गणहरा होत्था। हेमवय हिरण्णवयाओ णं जीवाओ सत्ततीसं जोयण सहस्साई छच्च चउसत्तरे जोयणसए सोलस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचिविसेसूणाओ आयामेणं पण्णत्ताओ। सव्वासु णं विजय वेजयंत जयंत अपराजियासु रायहाणीसु पागारा सत्ततीसं सत्ततीसं जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता। खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे सत्ततीसं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy