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समवाय३२
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बत्तीस हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं . जो बत्तीस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ ३२ ॥
विवेचन - मन, वचन, काया की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। पण्णवणा सूत्र में योग के १५ भेद किये गये हैं। वहाँ योग शब्द के बदले प्रयोग शब्द का उपयोग किया गया है। योग की प्रवृत्ति शुभ और अशुभ दोनों तरह की होती है किन्तु यहाँ शुभ प्रवृत्ति को ही ग्रहण किया गया है। शिष्य की आलोचना, गुरु का उसे किसी को न कहना इत्यादि क्रियाओं से प्रशस्त योगों का संग्रह होता है। प्रशस्त योग संग्रह में कारण होने से आलोचना आदि क्रियाओं को भी प्रशस्त योग संग्रह कहा गया है। जिनका नाम निर्देश मूल में तथा अर्थभावार्थ में दे दिया गया है। .
जैन सिद्धान्त में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक ये चार प्रकार के देव कहे गये हैं। इनके ६४ इन्द्र होते हैं। उनमें से भवनपति के २० इन्द्र हैं।
प्रश्न - भवनपति देव कहाँ रहते हैं?
उत्तर - इस समतल भूमि भाग से ४०,००० योजन नीचे जाने पर भवनपति देवों के भवन और आवास हैं। अर्थात् पहली नरक के १३ प्रस्तट (पाथडे) और उनके बीच में बारह
आंतरे हैं उनमें से तीसरे आंतरे से लेकर १२ वें आंतरे तक दस जाति के भवनपति देव रहते हैं। मेरु पर्वत से दक्षिण में रहने वाले दक्षिण भवनपति और उत्तर में रहने वाले उत्तर भवनपति कहलाते हैं। उनके बीस इन्द्र हैं। वे इस प्रकार हैं - . भवनपति देवों के नाम दक्षिण के इन्द्र उत्तर के इन्द्र १. अंसुरकुमार ..
चमरेन्द्र
बलीन्द्र .. . २. नागकुमार
धरणेन्द्र
भूतानन्द ३. सुवर्णकुमार (सुपर्णकुमार) वेणुदेव
विचित्रपक्ष ४. विद्युतकुमार
हरिकान्त
सुप्रभकान्त ५. अग्निकुमार देव
अग्निसिंह
तेजप्रभ ६. द्वीपकुमार
रूपप्रभ ७. उदधिकुमार
जलकान्त
जलप्रभ ८. दिशाकुमार
अमितगति
सिंह विक्रमगति ९. वायुकुमार
वेलम्ब
रिष्ट । १०.स्तनितकुमार
घोष
महाघोष(महानंद्यावर्त)
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