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________________ समवाय ३० निपुण कलुषित चित्त वाला वह धूर्त व्यक्ति तीर्थङ्कर भगवान् की आज्ञा की विराधना करके अपनी आत्मा के लिए अबोधि भाव मिथ्यात्व उत्पन्न करता है और महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥ २८-२९ ॥ २६. जो व्यक्ति बार बार हिंसाकारी शस्त्रों का और राजकथा आदि हिंसक और कामोत्पादक विकथाओं का प्रयोग करता तथा कलह बढ़ाता है । संसार सागर से तिराने वाले ज्ञानादि तीर्थ का नाश करता है । वह दुरात्मा महामोहनीय कर्म उपार्जन करता है ॥ ३० ॥ २७. जो पुरुष अपनी प्रशंसा के लिए अथवा अपने मित्र की प्रशंसा के लिए अधार्मिक एवं हिंसायुक्त निमित्त वशीकरण आदि योगों का बार बार प्रयोग करता है । वह महामोहनीय कर्म उपार्जन करता है ॥ ३१ ॥ १४७ २८. जो मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में तृप्त न होता हुआ अर्थात् उनमें अत्यन्तं गृद्ध होता हुआ उनका आस्वादन करता है अथवा पारलौकिक-देव सम्बन्धी कामभोगों की अत्यन्त अभिलाषा करता है वह महामोहनीय कर्म उपार्जन करता है ॥ ३२ ॥ २९. जो अज्ञानी पुरुष अनेक अतिशय वाले वैमानिक आदि देवों की ऋद्धि, द्युतिकान्ति, यश, वर्ण, बल और वीर्य का अभाव बताते हुए उनका अवर्णवाद बोलता है। वह महामोहनीय कर्म का उपार्जन करता है ॥ ३३ ॥ ३०. जो अज्ञानी सर्वज्ञ की तरह पूजा प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा से देव - ज्योतिषी और वैमानिक, यक्ष- वाणव्यन्तर और गुह्यक भवनपति, इन चार जाति के देवों को नहीं देखता हुआ भी " ये मुझे दिखाई देते हैं" इस प्रकार कहता है, ऐसा मिथ्या भाषण करने वाला व्यक्ति महामोहनीय कर्म उपार्जन करता है ॥ ३४ ॥ Jain Education International छठे गणधर श्री मण्डितपुत्र स्वामी तीस वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन करके सिद्ध, बुद्ध यावत् सब दुःखों से मुक्त हुए थे। प्रत्येक अहोरात्र मुहूर्त्त की अपेक्षा तीस मुहूर्त्त का होता है। इन तीस मुहूर्तों के तीस नाम कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं. - १. रौद्र २. शक्त ३. मित्र ४. वायु ५. सुप्रीत ६. अभिचन्द्र ७. महेन्द्र ८. प्रलम्ब ९. ब्रह्म १०. सत्य ११. आनन्द १२. विजय १३. विश्वसेन १४. प्राजापत्य १५. उपशम १६. ईशान १७. तष्ट १८. भावितात्मा १९. वैश्रमण २०. वरुणं २१: शतऋषभ २२. गन्धर्व २३. अग्निवैश्यायन २४. आतप २५. आवर्त्त २६. तष्टवान् २७. भूमहान् २८. ऋषभ २९. सर्वार्थ सिद्ध ३०. राक्षस । अठारहवें तीर्थङ्कर श्री अरनाथ स्वामी के शरीर की ऊँचाई तीस धनुष थी । देवों के राजा देवों के इन्द्र सहस्रार नामक आठवें इन्द्र के तीस हजार सामानिक देव कहे गये हैं । तेवीसवें तीर्थङ्कर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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