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________________ समवाय ३० १४५ ११. जो पुरुष बालब्रह्मचारी नहीं है किन्तु लोगों में अपने आपको बालब्रह्मचारी प्रकट करता है। स्त्रियों में गृद्ध होकर स्त्रियों के वश में रहता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥ १२॥ ___ १२. जो पुरुष अब्रह्मचारी है यानी मैथुन से निवृत्त नहीं है फिर भी दूसरों को धोखा देने के लिए अपने आप को ब्रह्मचारी बतलाता है। जैसे गायों के बीच में गधे का स्वर शोभा नहीं देता वैसे ही उसका यह कथन भी सजनों में अनादेय और अशोभनीय होता है। ऐसा करने वाला वह अज्ञानी अपनी आत्मा का ही अहित करता है। उसे अपनी झूठी बात बनाये रखने के लिए बहुत बार मायामृषावाद का आश्रय लेना पड़ता है। स्त्री सुखों में आसक्त रहने वाला वह पुरुष महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥ १३-१४ ॥ १३. जो व्यक्ति जिस राजा या सेठ के आश्रय में रह कर आजीविका करता है। अथवा जिसके प्रताप से या जिसकी सेवा करके अपना निर्वाह करता है उसी राजा या सेठ के धन में ललचा कर अनुचित उपायों से उसे लेने का प्रयत्न करता है वह कृतघ्न पुरुष महामोहनीय कर्म का उपार्जन करता है ॥ १५ ॥ . १४. कोई असमर्थ दीन व्यक्ति अपने स्वामी द्वारा अथवा जनसमूह के द्वारा समर्थ बना दिया जाय और उनके योग से उस निर्धन पुरुष के पास अतुल. यानी बहुत सम्पत्ति आ जाय। इस प्रकार सम्पन्न होकर यदि वह अपने उपकारक स्वामी अथवा जनसमूह के उपकारों को भूल कर उन्हीं के साथ ईर्षा करने लगे और द्वेष तथा लोभ से दूषित चित्त वाला होकर उनकी धन प्राप्ति में और भोग सामग्री की प्राप्ति में विघ्न डाले तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥ १६-१७ ॥ .. १५. जैसे सर्पिणी अपने अण्डों के समूह को मार कर स्वयं खा जाती है, उसी प्रकार जो व्यक्ति सब का पालन करने वाले घर के स्वामी की, सेनापति की, राजा की, कलाचार्य या धर्माचार्य की हिंसा करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है क्योंकि उपरोक्त व्यक्तियों की हिंसा करने से उनके आश्रित बहुत से व्यक्तियों की परिस्थिति शोचनीय बन जाती है ॥ १८ ॥ . १६. जो व्यक्ति देश के स्वामी को अथवा निगम यानी वणिक् समूह के नेता बहुत यशस्वी सेठ को मारता है वह महामोहनीय कर्म बांधता है ॥ १९ ॥ १७. जैसे समुद्र में गिरे हुए प्राणियों के लिए द्वीप आधार भूत है और वह उनकी रक्षा . करने में सहायक होता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति बहुत से प्राणियों के लिए द्वीप की तरह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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