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________________ समवाय ३० १४३ प्रतिलोभ-विपरीत, वग्गूहिं - वचनों से, झंपित्ता - अपमान करके, अकुमारभूए - अकुमारभूतविवाहित अर्थात् बाल ब्रह्मचारी नहीं है, कुमारभूएति हं - अपने आपको अविवाहित अर्थात् बाल ब्रह्मचारी, वए - प्रकट करता है, गवां मज्झे - गायों के बीच में, गदहे व्व - गधे का स्वर शोभा नहीं देता वैसे ही, इत्थी विसय गेहीए - स्त्री सुखों में गृद्ध आसक्त रहने वाला, जससाहिगमेण - जिसकी सेवा करके .पना निर्वाह करता है, अणीसरे - अनीश्वर असमर्थ दीन व्यक्ति, ईसरेण - अपने स्वामी के द्वारा, गामेणं - ग्राम से-जनसमूह के द्वारा, ईसरीकएईश्वरीकृत-समर्थ बना दिया जाय, सिरी - श्री-सम्पत्ति, ईसादोसेण - ईर्ष्या दोष से अथवा ईर्ष्या द्वेष से, आविटे - युक्त, कलुसाविल चेयसे - द्वेष तथा लोभ से दूषित चित्त वाला हो कर, सप्पी - सर्पिणी, अंड उडं - अंड कूट अथवा अंड पुट, भत्तारं - भर्तार-स्वामी की, रगुस्स - राष्ट्र-देश के, णेयारं. नेता, बहुरवं - बहुत यशस्वी, उवट्ठियं - उपस्थित - दीक्षा लेने को तैयार, पडिविरयं - दीक्षित, सुतवास्सयं - उग्र तपस्वी, वुक्कम्म - बलात्, धम्माओधर्म से, भंसेइ - भ्रष्ट करता है, अवण्णवं- अवर्णवाद, दुद्धे - दुष्ट, अवयरइ - निन्दा करता है, तिप्पयंतो भावेइ - धर्म के प्रति द्वेष और निन्दा के भावों का प्रचार करके धर्म से विमुख करता है, खिंसइ - खीजाता - चिढाता (निन्दा करता) है, थद्धे - अभिमान करने वाला, अप्पडिपूयए - सेवा की उपेक्षा करने वाला, सव्वलोय परे तेणे - लोक में सबसे बड़ा चोर, सढे - शठ-धूर्त, संपउजे - प्रयोग करता है, सहाहेउं - श्लाघा हेतु-अपनी प्रशंसा के लिये, आहम्मिएजोए - अधार्मिक योगों का, संपओ - प्रयोग करता है, अतिप्पयंतो - तृप्त न होता हुआ, आसयइ - आस्वादन करता है, गुज्झगे - गुह्यक-भवनपति देव। . .... भावार्थ - मोहनीय कर्म बांधने के तीस स्थान कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - . १. जो जीव त्रस प्राणियों को जल में डाल कर पानी के आघात से यानी पानी में डूबा कर उन्हें मार देता है, वह महामोहनीय कर्म बांधता है।। १ ॥ _____२. जो जीव बार बार तीव्र अशुभ परिणामों से युक्त होकर किसी त्रस प्राणी के शिर पर गीला चमड़ा बांध कर उसे मार देता है वह महामोहनीय कर्म बांधता है ॥ २ ॥ ३. जो जीव प्राणियों के नाक, मुख आदि इन्द्रिय द्वारों को हाथ से ढक कर और सांस रोक कर अन्दर घुरघुर शब्द करते हुए उसे मार देता है वह महामोहनीय कर्म उपार्जन करता ४. जो व्यक्ति बहुत से प्राणियों को मण्डप या बाड़े आदि स्थानों में घेर कर चारों ओर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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