SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवाय २८ १३३ MammaNIMAMMI mamtammnewMAHaseenewsmsmewwwRAMMAMINARAINIMImmmmmmmmmaNAME वर्णन ऊपर भावार्थ में कर दिया गया है। स्थिर, अस्थिर तथा शुभ और अशुभ एवं आदेय और अनादेय ये तीन प्रकृतियाँ परस्पर विरोधी हैं। इसलिये इन छह प्रकृतियों का एक साथ बंध नहीं होता है। इसलिये इनमें से किसी तीन का बन्ध एक साथ हो सकता है। नरक गति के विषय में भी इन २८ प्रकृतियों का बन्ध होता है। किन्तु इन आठ प्रकृतियों में फरक पड़ता है। यथा - नरक गति में अप्रशस्त विहायोगति नामकर्म, हुण्डक संस्थान, स्थिर, दुर्भग, अशुभ, दुःस्वर, अनादेय, अयशोकीर्ति। इसके अतिरिक्त २० ऊपर कही कई प्रकृतियाँ समझ लेनी चाहिये । मूल में 'णाणत्तं' शब्द दिया है जिसका अर्थ है - 'नानात्व' (फर्क, विशेष)। ज्ञान के पांच भेद हैं - १. मतिज्ञान २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान ४. मनःपर्यव ज्ञान ५. केवलज्ञान । यहाँ मति ज्ञान के भेद बतलाये गये हैं - इसके मुख्य भेद चार हैं - १. अवग्रह २. ईहा ३. अवाय ४. धारणा। । अवग्रह - इन्द्रिय और पदार्थों के योग्य स्थान में रहने पर सामान्य प्रतिभास रूप दर्शन के बाद होने वाले अवान्तर सत्ता सहित वस्तु के सर्व प्रथम ज्ञान को अवग्रह कहते हैं। जैसे दूर से किसी चीज का ज्ञान होना। इंहा - अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के विषय में उत्पन्न हुए संशय को दूर करते हुए विशेष की जिज्ञासा को ईहा कहते हैं। जैसे - अवग्रह से किसी दूरस्थ चीज का ज्ञान होने पर संशय होता है कि यह दूरस्थ चीज मनुष्य है या स्थाणु (सूखे वृक्ष का ढूंठ)? ईहा .. ज्ञानवान व्यक्ति, विशेष धर्म विषयक विचारणा द्वारा इस संशय को दूर करता है और यह जान लेता है कि यह मनुष्य होना चाहिये। यह ज्ञान दोनों पक्षों में रहने वाले संशय को दूर कर एक तरफ झुकता है। परन्तु इतना कमजोर होता है कि ज्ञाता को इससे पूर्ण मिस्वय नहीं होता और उसको तद्विषयक निश्चयात्मक ज्ञान की आकांक्षा बनी ही रहती है। .. अवाय - ईहा से जाने हुए पदार्थों में 'यह वही है, अन्य नहीं है' ऐसे निश्चयात्मक ज्ञान को अवाय कहते हैं। जैसे यह मनुष्य ही है। धारणा - अवाय से जाना हुआ पदार्थों का ज्ञान इतना दृढ़ हो जाय कि कालान्तर में भी उसका विस्मरण न हो तो, उसे धारणा कहते हैं। नन्दीसूत्र में अवग्रह आदि का समय इस प्रकार बताया है कि - ' सूत्र - ३५ उग्गहे इक्कसमइए, अंतोमुहुत्तिया ईहा, अंतोमुहुत्तिए अवाए, धारणा संखेज वा कालं असंखेज वा कालं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy