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समवाय २८
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प्रायश्चित्त दिया गया। उसमें फिर कहीं दोष लग गया तब एक मास तक करने योग्य फिर प्रायश्चित्त दिया गया उसे मासिकी आरोपणा कहते हैं। २. पहले दिये हुए प्रायश्चित्त में एक मास और पांच रात्रि का प्रायश्चित्त फिर देना सो सपंच रात्रि मासिकी आरोपणा कहलाती है। ३. दस रात्रि तक मासिकी आरोपणा। ४-५-६ इसी तरह पन्द्रह रात्रि सहित मासिकी आरोपणा, बीस रात्रि सहित मासिकी आरोपणा और पच्चीस रात्रि सहित मासिकी आरोपणा जाननी चाहिए। ७-१२ इसी तरह द्विमासिकी आरोपणा के छह भेद जानने चाहिए। १३-१८ इसी तरह त्रिमासिकी आरोपणा के छह भेद और १९-२४ चतुर्मासिकी आरोपणा के भी छह भेद जानने चाहिए। २५. पहले दिये हुए प्रायश्चित्त में लघुमास यानी २७॥ दिन का फिर प्रायश्चित्त देना उद्घातिक आरोपणा कहलाती है। २६. लघुद्विमास यानी एक महीना साढे सत्ताईस दिन का प्रायश्चित्त फिर देना अनुद्घातिक आरोपणा कहलाती है। २७. जितना दोष लगा है उतना पूरा प्रायश्चित्त देना कृत्स्ना आरोपणा कहलाती है। २८. बहुत दोष लगने पर भी सब मिला कर छह महीनों से अधिक प्रायश्चित्त नहीं देना अकृत्स्ना आरोपणा कहलाती है। इस समय छह महीनों से अधिक तप का विधान नहीं है। इतना ही आचार प्रकल्प है और इतना ही आचरण करना चाहिए । कितनेक भव-सिद्धिक - भव्य जीवों के मोहनीय कर्म की अट्ठाईस कर्म प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं। वे इस प्रकार हैं- १. सम्यक्त्व वेदनीय २. मिथ्यात्व वेदनीय ३. सम्यग्मिथ्यात्व वेदनीय ४-१९ अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन इन प्रत्येक के क्रोध, मान, माया, लोभ ये सोलह कषाय और २०-२८ नौ नोकषाय। आभिनिबोधिक यानी मतिज्ञान अट्ठाईस प्रकार का कहा गया है यथा - १. श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह २. चक्षुइन्द्रिय अर्थावग्रह ३. घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह ४. जिह्वेन्द्रिय अर्थावग्रह ५. स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह ६. नोइन्द्रिय यानी मन अर्थावग्रह ७. श्रोत्रेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह ८. घ्राणेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह ९. जिह्वेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह १०. स्पर्शनेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह ११. श्रोत्रेन्द्रिय ईहा १२. चक्षु इन्द्रिय ईहा १३. घ्राणेन्द्रिय ईहा १४. जिह्वेन्द्रिय ईहा १५. स्पर्शनेन्द्रिय ईहा १६. नोइन्द्रिय ईहा १७. श्रोत्रेन्द्रिय अवाय १८. चक्षुइन्द्रिय अवाय १९. घ्राणेन्द्रिय अवाय २०. जिह्वेन्द्रिय अवाय २१. स्पर्शनेन्द्रिय अवाय २२. नोइन्द्रिय अवाय २३. श्रोत्रेन्द्रिय धारणा २४. चक्षु इन्द्रिय धारणा २५. घ्राणेन्द्रिय धारणा २६. जिह्वेन्द्रिय धारणा २७. स्पर्शनेन्द्रिय धारणा २८. नोइन्द्रिय धारणा। ईशान नामक दूसरे देवलोक में अट्ठाईस लाख विमान कहे गये हैं। जो जीव देवगति का बन्ध करता है वह नाम कर्म की अट्ठाईस उत्तर प्रकृतियों का बन्ध करता है उनके नाम इस प्रकार हैं - १. देवगति नाम कर्म २. पञ्चेन्द्रिय जाति नाम ३. वैक्रिय शरीर
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