SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवाय २५ Jain Education International COPEEDIDIK पानी ग्रहण करना और प्रकाश वाले स्थान में बैठ कर भोजन करना । ५. आदान भंड मात्र निक्षेपणा समिति यता पूर्वक भंडोपकरण लेना और रखना। ये प्राणातिपात विरमण रूप पहले महाव्रत की पांच भावनाएँ हैं । ६. अनुवीचि भाषणता विचार कर बोलना । ७. क्रोध विवेक - क्रोधत्याग - क्रोधयुक्त वचन न बोलना ८. लोभ विवेक - लोभत्याग - लोभयुक्त वचन न बोलना। ९. भय विवेक - भय का त्याग । १०. हास्य विवेक हास्य का त्याग, ये पांच मृषावाद विरमण रूप दूसरे महाव्रत की पांच भावनाएँ हैं । ११. मकान आदि में ठहरने के लिए उसके स्वामी की आज्ञा लेना । १२. उपाश्रय की सीमा खोल कर आज्ञा लेना । १३. उपाश्रय की सीमा को स्वयं जान कर फिर उसमें रहना । १४. सम्भोगी साधुओं को उपाश्रय की सीमा बतला कर उसे भोगना अर्थात् काम में लेना । १५. लाये हुए आहार पानी को गुरु महाराज या अपने से बड़े साधु को दिखला कर और उनकी आज्ञा लेकर भोगना । ये अदत्तादान विरमण रूप तीसरे महाव्रत की पांच भावनाएं हैं । १६. स्त्री, पशु, नपुंसक युक्त उपाश्रय में नहीं ठहरना । १७. स्त्री कथा न करना । १८. स्त्रियों के नाक, कान आदि इन्द्रियों को विकार दृष्टि से नहीं देखना । १९. पहले भोगे हुए कामभोगों को स्मरण न करना २०. अति सरस और गरिष्ठ आहार का त्याग करना। ये मैथुन विरमण रूप चौथे महाव्रत की पांच भावनाएँ हैं। २१. श्रोत्रेन्द्रिय के विषय मधुर शब्दों में राग न करना । २२. चक्षु इन्द्रिय के विषय सुन्दर रूप आदि में राग न करना २३. घ्राणेन्द्रिय के विषय सुगन्धित पदार्थों में राग न करना २४. जिह्वा इन्द्रियं के विषय मनोज्ञ रस में राग न करना । २५. स्पर्शनेन्द्रिय के विषय मनोज्ञ स्पर्श में राग न करना । ये परिग्रह विरमण रूप पांचवें महाव्रत की पांच भावनाएं हैं। इस प्रकार इन पांचों महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ होती हैं । उन्नीसवें तीर्थङ्कर भगवान् मल्लिनाथ के शरीर की ऊँचाई पच्चीस धनुष थी। सब दीर्घ वैताढ्य पर्वत पच्चीस पच्चीस योजन के ऊंचे और पच्चीस पच्चीस गाऊ - कोस के ऊंडे कहे गये हैं। शर्कराप्रभा नामक दूसरी नरक में पच्चीस लाख नरकावास कहे गये हैं। चूलिका सहित आचारांग सूत्र के पच्चीस अध्ययन कहे गये हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं १. शस्त्र परिज्ञा २. लोकविजय ३. शीतोष्णीय ४. सम्यक्त्व ५. आवंती ६. धूत ७. विमोक्ष ९. उपधान श्रुत १०. महा परिज्ञा ११. पिण्डैषणा १२. शय्या १३. ईर्या १४. भाषाध्ययन १५. पात्रैषणा १६. अवग्रह प्रतिमा १७- २३. सात सत्तिक्कया २४. भावना २५. विमुक्ति । निशीथ अध्ययन पच्चीसवां है। संक्लिष्ट परिणाम वाला मिथ्यादृष्टि अपर्याप्तक विकलेन्द्रिय अर्थात् बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों में से कोई एक जीव नाम कर्म की पच्चीस उत्तर प्रकृतियाँ बांधता है, उनके For Personal & Private Use Only - १२१ - www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy