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समवाय २२
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बारहवें देवलोक में देवों की उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम की कही गई है। नव ग्रैवेयक में सब से नीचे प्रथम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम की कही गई है। प्रथम ग्रैवेयक के अन्तर्गत महित, विशोधित, विमल, प्रभास, वनमाल, अच्युतावतंसक, इन छह विमानों में जो देव देव रूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम की कही गई है। वे देव बाईस पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को बाईस हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बाईस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ २२ ॥
विवेचन - कष्ट, आपत्ति आदि आ जाने पर भी संयम में स्थिर रहने के लिये तथा कर्मों की निर्जरा के लिये जो शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट साधु-साध्वियों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिये। उन्हें 'परीषह' कहते हैं। ये बाईस हैं, जो ऊपर बताये गये हैं। भूख, प्यास, ठण्ड, गर्मी, डांस मच्छर आदि से होने वाले कष्ट को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिये। . अचेल परीषह के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय में विशेष मतभेद है। अम्बर का अर्थ है वस्त्र - जिनके साधु साध्वी सिर्फ सफेद रंग के कपड़े रखते हैं (रंग बिरंगे नहीं) इसलिये उनको श्वेताम्बर कहते हैं। जो दिशाओं को ही कपड़ा मानते हैं वस्त्रादि कुछ नहीं रखते हैं, एकदम नग्न रहते हैं। उन्हें दिगम्बर (दिक्-दिशा+अम्बर-कपड़ा) कहते हैं। वस्त्र अथवा वस्त्र का एक सूत भी ग्रहण करने वाले को यह सम्प्रदाय मुनि नहीं मानती। नग्नता में ही मुक्ति मानती है। सवस्त्र को मुक्ति नहीं मानती । नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि ने अचेल परीषह का अर्थ इस प्रकार किया है -
"चेलानां - वस्त्राणां बहु धननवीनावदातसुप्रमाणानां सर्वेषां वाऽभावः अचेलत्वमित्यर्थः"
अर्थात् बहुमूल्य, नवीन, साफ-सुथरा तथा बहुत परिमाण वाले वस्त्रों का अभाव अचेलत्व कहलाता है.। अर्थात् अल्प मूल्य, जीर्ण और मर्यादित वस्त्र रखना अचेल परीषह है। दूसरे परीषहों का अर्थ भावार्थ में कर दिया गया है।
इस विषय में वाचकमुख्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के ९ वें अध्याय में इस प्रकार कहा है - मार्गाऽच्यवननिर्जरार्थं परिसोढव्याः परीषहाः ॥ ८ ॥
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