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उत्तराध्ययन सूत्र - तेईसवाँ अध्ययन
मोक्ष को तो मानते हैं परन्तु उनके द्वारा मान्य मोक्ष का स्वरूप बिलकुल भिन्न और विचित्र है। तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए जिन अनुष्ठानों का वे निर्देश करते हैं वे भी यथार्थ नहीं हैं । इसीलिए जैन दर्शन सम्मत अंतिम शाश्वत सुखमय स्थान- मोक्ष क्या है, कैसा है, कैसे प्राप्त होता है, इसका स्पष्टीकरण गौतमस्वामी द्वारा इन गाथाओं में किया गया है।
केशी श्रमण की गौतमस्वामी के प्रति कृतज्ञता
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साहु गोयम! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो ।
णमो ते संसयातीत! सव्वसुत्तमहोयही ॥ ८५ ॥
कठिन शब्दार्थ - पण्णा प्रज्ञा-बुद्धि, छिण्णो - छिन्न, मे - मेरे, इमोइन, संसओ - संशय, संसयातीत - संशयातीत संशय रहित, सव्वसुत्तमहोंयही - सर्वसूत्रमहोदधि ।
भावार्थ - केशीकुमार श्रमण कहने लगे कि हे गौतम! आपकी प्रज्ञा-बुद्धि बहुत उत्तम है, आपने मेरे इन संशयों को छिन्न- दूर कर दिया है। हे संशयातीत - संशय रहित ! हे सर्वसूत्रमहोदधि ! अर्थात् सर्वशास्त्रों के ज्ञाता ! आपको नमस्कार करता हूँ।
केशी श्रमण का वीरशासन प्रवेश
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एवं तु संसए छिणे, केसी घोरपरक्कमे । अभिवंदित्ता सिरसा, गोयमं तु महायसं ॥ ८६ ॥ पंचमहव्वयधम्मं पडिवज्जइ भावओ ।
पुरिमस्स पच्छिमम्मि, मग्गे तत्थ सुहावहे ॥ ८७ ॥
कठिन शब्दार्थ - घोरपरक्कमे - घोरपराक्रमी, अभिवंदित्ता - अभिवंदन कर, सिरसासिर से, महायसं - महायशस्वी, पंचमहव्वयधम्मं - पांच महाव्रत रूप धर्म को, पडिवज्जइस्वीकार किया, भावओ भाव से, पुरिमस्स पच्छिमम्मि प्रथम तीर्थंकर के एवं अंतिम तीर्थंकर के द्वारा उपदिष्ट, मग्गे - मार्ग में, सुहावहे - सुखावह ।
भावार्थ - इस प्रकार संशय दूर हो जाने पर घोर पराक्रम वाले केशीकुमार श्रमण ने महायशस्वी गौतम स्वामी को शिर से मस्तक झुकाकर वंदना करके (हाथ जोड़ कर तथा शिर झुका कर ) वहीं तिन्दुक वन में पाँच महाव्रत रूप धर्म को भाव पूर्वक अंगीकार किया और वे
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