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उत्तराध्ययन सूत्र - बाईसवाँ अध्ययन
नदी में गिर कर समुद्र में पहुँच जाता है, वैसे ही संयम में अस्थिर तुम्हारी आत्मा भी उच्च पद नीचे गिर जायगी और फिर संसार - समुद्र में परिभ्रमण करती रहेगी ।
गोवालो भंडवालो वा जहा तद्दव्वऽणिस्सरो ।
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एवं अणीस तं पि, सामण्णस्स भविस्ससि ॥४६॥
कठिन शब्दार्थ - गोवालो - गोपालक, भंडवालो - भाण्डपाल, तद्दव्वऽणिस्सरो - उस द्रव्य के अनीश्वर (स्वामी नहीं) होते, अणीसरो - स्वामी नहीं, सामण्णस्स श्रामण्यभाव का। भावार्थ - जिस प्रकार गोपालक - ग्वाला या भाण्डपाल भण्डारी उस द्रव्य का स्वामी
नहीं होता है इसी प्रकार तू भी श्रमणपन का अनीश्वर (अस्वामी) हो जायगा ।
विवेचन
राजीमती रथनेमि को दृष्टांत देकर समझाती है कि हे मुने! जैसे गौओं को चराने वाला ग्वाला उन गौओं का स्वामी नहीं होता और न उसे उनके दूध आदि को ग्रहण करने का अधिकार होता है और जैसे कोषाध्यक्ष उस धन का स्वामी नहीं होता और न उस धन को खर्च करने का अधिकारी होता है, उसी प्रकार तू भी संयम का वास्तविक स्वामी नहीं होगा क्योंकि द्रव्य-संयम से आत्मा का कल्याण कभी नहीं हो सकता ।
रथनेमि पुनः संयम में दृढ़
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तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाइ सुभासियं ।
अंकुसेण जहा णागो, धम्मे संपडिवाइओ ॥ ४७ ॥
कठिन शब्दार्थ - संजयाइ - संयमवती, सुभासियं - सुभाषित, वयणं - वचनों को, अंकुसेण - अंकुश से, जहा जैसे, णागो - हाथी, धम्मे धर्म में संपडिवाइओ
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स्थिर हो गया ।
भावार्थ
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वह रथनेमि उस संयमवती साध्वी के सुभाषित वचनों को सुन कर धर्म में स्थिर हो गया जैसे अंकुश से हाथी वश में हो जाता है।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा (क्रं. ४७ ) और आगे की गाथा (क्रं. ४८) क्रम में अन्तर है। कहीं कहीं ४७ वां को ४८ वाँ और ४८वाँ को ४७ वाँ स्थान प्राप्त है । किन्तु लुधियाना की प्रति में प्रस्तुत क्रमानुसार ही है और हैदराबाद वाली प्रति में बीकानेर वाली आवृत्ति के समान है। पूज्य श्री घासीलाल जी म. सा. वाली प्रति में तो यह गाथा है ही नहीं । इसी प्रकार श्री संतबाल सम्पादित पुस्तक में भी नहीं है और आचार्य श्री नेमीचन्द की वृत्ति (संवत् ११२६) में
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