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उत्तराध्ययन सूत्र - बाईसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नियमों और व्रतों में, जाई - जाति, कुलं - कुल, सीलं - शील, रक्खमाणी - रक्षा करती हुई, वए - कहा।
भावार्थ - इसके बाद नियम और व्रतों में भलीभांति स्थित वह राजकन्या राजीमती जाति और कुल तथा शील की रक्षा करती हुई उस रथनेमि को इस प्रकार कहने लगी।
जइसि रूवेण वेसमणो, ललिएण णलकूबरो। .. तहा वि ते ण इच्छामि, जइऽसि सक्खं पुरंदरो॥४१॥
कठिन शब्दार्थ - रूवेण - रूप में, वेसमणो - वैश्रमण, ललिएण - ललितकलाओं में, णलकूबरो - नलकूबर, सक्खं - साक्षात्, पुरंदरो - पुरन्दर-इन्द्र।
भावार्थ - यदि तू रूप में वैश्रमण देव के समान हो और लीला-विलास में नलकूबर देव . के समान हो। अधिक तो क्या यदि साक्षात् पुरंदर (इन्द्र) भी हो तो भी मैं तेरी इच्छा नहीं करती हूँ।
विवेचन - इन्द्र का आज्ञाकारी वैश्रमण देव है। वह धन का स्वामी है। अर्थात् इन्द्र का भंडारी (खजांची) है। उसका आज्ञाकारी कुबेर देव है। वह लीला विलास करने में अत्यन्त निपुण होता है। कुबेर की संतान को नलकूबर कहते हैं। किन्तु प्रश्न होता है कि - देवताओं के तो संतान होती नहीं है तो फिर कुबेर की संतान ऐसा कैसे कहा गया है? तो इसका समाधान यह दिया गया है कि - कुबेर जो वैक्रिय रूप से बालक बालिका का रूप बनाता है वे अधिक सुन्दर व लीला विलास युक्त होते हैं। इसलिए उन वैक्रिय रूपों को कुबेर की संतान कह दिया गया है।
पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं। णेच्छंति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे॥४२॥
कठिन शब्दार्थ - पक्खंदे - गिर जाते हैं, जलियं - जलती हुई, जोई - ज्योति, धूमकेउं - धूमकेतु-धुआं निकलती हुई, दुरासयं - दुष्प्रवेश, वंतयं - वमन किये हुए को, भोत्तुं - पुनः पीना, कुले - कुल में, जाया - उत्पन्न हुए, अगंधणे - अगंधन नामक। .
भावार्थ - अगन्धन नामक कुल में उत्पन्न हुए सर्प जलती हुई धूमकेतु-धूआँ निकलती हुई कठिनाई से सहने योग्य ज्योति-अग्नि में गिर जाते हैं अर्थात् अग्नि में गिर कर मर जाना तो पसंद करते हैं किन्तु वमन किये हुए विष को पुनः पीने की इच्छा नहीं करते।
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