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जो बत्तीस आगम हमारी स्थानकवासी परम्परा में मान्यता प्राप्त है। उनका वर्गीकरण समय-समय पर विभिन्न रूप में किया गया है। सर्वप्रथम इन्हें अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है। अंग प्रविष्ट श्रुत में उन आगमों को लिया गया है जिनका निर्वृहण गणधरों द्वारा सूत्र रूप में हुआ है अथवा गणधर भगवन्तों द्वारा जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर जो तीर्थकर प्रभु द्वारा समाधान फरमाया गया हो। अंग बाह्य श्रुत वह है जो स्थविर कृत हो अथवा गणधरों के जिज्ञासा प्रस्तुत किये बिना तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित हो। समवायांग और अनुयोगद्वार सूत्र में आगम साहित्य का केवल द्वादशांगी के रूप में निरूपण हुआ है। तीसरा वर्गीकरण विषय के हिसाब से चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग एवं धर्मकथानुयोग के रूप में हुआ है। इसके पश्चात्वर्ती साहित्य में सबसे अर्वाचीन है उनमें ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद और बत्तीसवां आवश्यक सूत्र के रूप में वर्तमान में बत्तीस आगमों का वर्गीकरण किया गया है।
११ अंग - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथांग, उपासकदशांग, अन्तकृतदशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण एवं विपाक सूत्र।
१२ उपांग - औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, निरियावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा सूत्र।
४ छेद - दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ सूत्र । ४ मूल - उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नंदी और अनुयोगद्वार सूत्र।
१ आवश्यक सूत्र જીત ૨૨
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