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________________ ४१० उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अट्ठारस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे। सहस्सारम्मि जहण्णेणं, सत्तरस सागरोवमा॥२३३॥ भावार्थ - सहस्रार नामक आठवें देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति सतरह सागरोपम की है और उत्कृष्ट अठारह सागरोपम की होती है। सागरा अउणवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे। आणयम्मि जहण्णेणं, अट्ठारस सागरोवमा॥२३४॥ भावार्थ - आणत नामक नववे देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति अठारह सागरोपम की है और उत्कृष्ट उन्नीस सागरोपम की होती है। वीसं तु सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे। पाणयम्मि जहण्णेणं, सागरा अउणवीसई॥२३५॥ भावार्थ - प्राणत नामक दसवें देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति उन्नीस सागरोपम की। और उत्कृष्ट बीस सागरोपम की होती है। सागरा इक्कवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे। आरणम्मि जहण्णेणं, वीसई सागरोवमा॥२३६॥ . भावार्थ - आरण नामक ग्यारहवें देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति बीस सागरोपम की । होती है और उत्कृष्ट इक्कीस सागरोपम की होती है। बावीसं सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे। अच्चुयम्मि जहण्णेणं, सागरा इक्कवीसई॥२३७॥ भावार्थ - अच्युत नामक बारहवें देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति इक्कीस सागरोपम की होती है और उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की होती है। तेवीसं सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे। पढमम्मि जहण्णेणं, बावीसं सागरोवमा॥२३॥ भावार्थ - ग्रैवेयक देवों की आयु का वर्णन किया जाता है - प्रथम ग्रैवेयक में देवों की जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम की है और उत्कृष्ट तेईस सागरोपम की होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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