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उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन
एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रस - फासओ ।
संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ ११७ ॥
भावार्थ - इन अग्निकाय के जीवों के वर्ण से, गन्ध से, रस से, स्पर्श से और संस्थान की अपेक्षा भी हजारों, विधान-भेद होते हैं।
दुविहा वाउजीवा उ, सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेव दुहा पुणो ॥ ११८ ॥
वायुकाय का स्वरूप
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भावार्थ. वायुकाय के जीव दो प्रकार के हैं- सूक्ष्म और बादर । पुनः इसी प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से ये वायुकाय के जीव दो प्रकार के हैं । बायरा जे उ पज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया ।
उक्कलिया मंडलिया, घणगुंजा सुद्धवाया य ॥ ११६ ॥
कठिन शब्दार्थ - उक्कलिया - उत्कलिका वात, मंडलिया - मण्डलिका वात, घणगुंजाघनवात, सुद्धवाया - शुद्धवात ।
भावार्थ - जो बादर पर्याप्त वायुकाय के जीव हैं, वे पांच प्रकार के कहे गये हैं । यथा उत्कलिका (ऐसी वायु जो रुक-रुक कर चले ), घनवायु- ठोसवायु, गुंजा वायु (जो चलती हुई गुंजार शब्द करे) और शुद्ध वायु ।
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विवेचन बादर पर्याप्त वायुकाय के जो भेद बताए हैं उनके विशेष अर्थ इस प्रकार हैं १. उत्कलिकावात - जो वायु ठहर ठहर कर चले या जो घूमती हुई ऊंची जाए।
२. मण्डलिकावात - धूल आदि के गोटे सहित गोलाकार घूमने वाली वायु अथवा पृथ्वी से लगकर चक्कर खाता हुआ चलने वाला पवन ।
३. घनवात - घनोदधि वात, जो रत्नप्रभा आदि नरक पृथ्वियों के नीचे - अधोवर्ती बहता है अथवा विमानों के नीचे की घन रूप वायु ।
४. गुंजावात - गूंजती हुई चलने वाली वायु ।
५. शुद्धवात - उक्त दोषों से रहित मंद मंद चलने वाली हवा |
६. संवर्तकवात - जो वायु तृण आदि को उड़ा कर ले जाए ।
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