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________________ ३७८ उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रस - फासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ ११७ ॥ भावार्थ - इन अग्निकाय के जीवों के वर्ण से, गन्ध से, रस से, स्पर्श से और संस्थान की अपेक्षा भी हजारों, विधान-भेद होते हैं। दुविहा वाउजीवा उ, सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेव दुहा पुणो ॥ ११८ ॥ वायुकाय का स्वरूप - Jain Education International भावार्थ. वायुकाय के जीव दो प्रकार के हैं- सूक्ष्म और बादर । पुनः इसी प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से ये वायुकाय के जीव दो प्रकार के हैं । बायरा जे उ पज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया । उक्कलिया मंडलिया, घणगुंजा सुद्धवाया य ॥ ११६ ॥ कठिन शब्दार्थ - उक्कलिया - उत्कलिका वात, मंडलिया - मण्डलिका वात, घणगुंजाघनवात, सुद्धवाया - शुद्धवात । भावार्थ - जो बादर पर्याप्त वायुकाय के जीव हैं, वे पांच प्रकार के कहे गये हैं । यथा उत्कलिका (ऐसी वायु जो रुक-रुक कर चले ), घनवायु- ठोसवायु, गुंजा वायु (जो चलती हुई गुंजार शब्द करे) और शुद्ध वायु । - विवेचन बादर पर्याप्त वायुकाय के जो भेद बताए हैं उनके विशेष अर्थ इस प्रकार हैं १. उत्कलिकावात - जो वायु ठहर ठहर कर चले या जो घूमती हुई ऊंची जाए। २. मण्डलिकावात - धूल आदि के गोटे सहित गोलाकार घूमने वाली वायु अथवा पृथ्वी से लगकर चक्कर खाता हुआ चलने वाला पवन । ३. घनवात - घनोदधि वात, जो रत्नप्रभा आदि नरक पृथ्वियों के नीचे - अधोवर्ती बहता है अथवा विमानों के नीचे की घन रूप वायु । ४. गुंजावात - गूंजती हुई चलने वाली वायु । ५. शुद्धवात - उक्त दोषों से रहित मंद मंद चलने वाली हवा | ६. संवर्तकवात - जो वायु तृण आदि को उड़ा कर ले जाए । CSSSSSSSS०००० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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