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उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन
एगविहमणाणत्ता, सुहमा तत्थ वियाहिया । सुहमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा ॥ १०१ ॥
भावार्थ - उनमें सूक्ष्म वनस्पति काय के जीव अनानात्व- भेद रहित एक ही प्रकार के कहे गये हैं। सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव सर्व लोक में व्याप्त हैं और बादर जीव लोक के एक देश में व्याप्त हैं।
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संतई पप्पणाइया, अपज्जवसिया विय।
ठिइं पडुच्च साइया, सपज्जवसिया वि य ॥ १०२ ॥
भावार्थ - सन्तति (प्रवाह) की अपेक्षा वनस्पतिकाय के जीव अनादि और अपर्यवसितअनन्त भी हैं और स्थिति की अपेक्षा सादि - आदि सहित और सपर्यवसित - सान्त भी हैं। दस चेव सहस्साई, वासाणुक्कोसिया भवे ।
वणसईण आउं तु, अंतोमुहुत्तं जहण्णयं ॥ १०३ ॥ कठिन शब्दार्थ दस सहस्सा दस हजार,
वासाणं
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अणंतकालमुक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहणिया ।
कायठिई पणगाणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ १०४ ॥
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वनस्पतिकाय के जीवों की, आउं - आयु ।
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भावार्थ - वनस्पतिकाय के जीवों की उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्ष और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की भवस्थिति होती है।
वर्षों का,
वणसईण
भावार्थ उस वनस्पतिकाय को न छोड़ते हुए. पनक ( लीलण - फूलण निगोद आदि) की उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्तकाल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की कायस्थिति है।
असंखकालमुक्कोसं, अंत्तोमुहत्तं जहण्णयं ।
विजढम्म सकाए, पणगजीवाण अंतरं ।। १०५ ।।
भावार्थ - अपनी काया को छोड़ देने पर पनक (लीलण फूलण निगोद आदि) जीवों का उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात काल, जघन्य अन्तर्मुहूर्त है।
विवेचन - वनस्पतिकाय की कायस्थिति अनन्तकाल की है। इसके सिवाय किसी भी दण्डक की स्थिति अनन्तकाल की नहीं है किन्तु असंख्यात काल की है। वनस्पतिकाय का जीव मरकर दूसरे किसी भी दण्डक में चला जाय तो वहाँ असंख्यात काल ही रहेगा। इसके बाद उस
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