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जीवाजीव विभक्ति - सिद्ध जीवों का स्वरूप
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कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइट्टिया। कहिं बोंदिं चइत्ताणं, कत्थ गंतूण सिज्झइ॥५६॥
कठिन शब्दार्थ - कहिं - कहां, पडिहया - प्रतिहत, सिद्धा - सिद्ध, पइट्ठिया - प्रतिष्ठित, बोंदि - शरीर को, चइत्ताणं - छोड़ कर, कत्थ - कहां, गंतूण - जा कर।
भावार्थ - सिद्ध ऊपर जा कर कहाँ प्रतिहत - रुके हैं? सिद्ध कहाँ प्रतिष्ठित - स्थित हैं और कहाँ शरीर को छोड़कर, कहाँ जा कर सिद्ध होते हैं?
विवेचन - प्रस्तुते गाथा में सिद्धों के गति निरोध, उनकी अवस्थिति, उनके शरीर त्याग तथा उनके सिद्धिस्थान से संबंधित चार प्रश्न किये गये हैं। यथा - १. सिद्ध परमात्मा कहां जा कर रुकते हैं? २. कहां ठहरते हैं? ३. अंतिम शरीर त्याग कहां करते हैं? ४. सिद्धि गति कहां
अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्टिया। इहं बोंदिं चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झइ॥५७॥ कठिन शब्दार्थ - अलोए - अलोक में, लोयग्गे - लोक के अग्रभाग में।
भावार्थ - सिद्ध, अलोक में (लोक के अन्त तक) पहुँच कर प्रतिहत - रुके हैं और लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित - स्थित हैं। इस तिर्यग्लोक में शरीर को छोड़ कर लोक के. अग्रभाग में जा कर सिद्ध होते हैं। .
विवेचन - अलोक में सिर्फ आकाशास्तिकाय है। गति सहायक धर्मास्तिकाय नहीं है। इसलिए सिद्ध भगवन्तों की गति अलोक में नहीं हो सकती है।
बारसहिं जोयणेहिं, सव्वट्ठस्सुवरिं भवे। ईसिपम्भार-णामा उ, पुढवी छत्त-संठिया॥५॥
कठिन शब्दार्थ - बारसहिं - बारह, जोयणेहिं - योजन, सव्वट्ठस्स - सर्वार्थसिद्ध विमान के, उवरिं - ऊपर, ईसिपन्भार-णामा - ईषत् प्राग्भार नाम वाली, पुढवी - पृथ्वी, छत्त-संठिया - छत्र के आकार की।
भावार्थ - सर्वार्थसिद्ध विमान के बारह योजन, ऊपर उत्तान छत्र के आकार की ईषत्प्रागभारा नाम वाली पृथ्वी है।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में आए हुए 'छत्त-संठिया' शब्द का आशय 'उत्तान किए हुए (ऊपर को उल्टे ताने हुए) छत्र के आकार में अर्थात - "0" इस आकार में।'
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