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उत्तराध्ययन सूत्र - पैंतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
कठिन शब्दार्थ - णिज्जूहिऊण - परित्याग कर, आहारं - आहार का, कालधम्मे - कालधर्म, उवट्ठिए - उपस्थित होने पर, जहिऊण - छोड़ कर, माणुसं बोंदिं - मनुष्य शरीर को, पहू - प्रभु-समर्थ, दुक्खा - दुःख से, विमुच्चइ - विमुक्त हो जाता है। ____ भावार्थ - कालधर्म अर्थात् मृत्यु का समय उपस्थित होने पर चारों प्रकार के आहार का त्याग कर के इस मनुष्य सम्बन्धी बोंदि - औदारिक शरीर को छोड़ कर प्रभु अर्थात् समर्थ मुनि सब दुःखों से विमुक्त हो जाता है अर्थात् छूट जाता है।
णिम्ममे णिरहंकारे, वीयरागो अणासवो। संपत्तो केवलं णाणं, सासयं परिणिव्वुए॥२१॥ ..
कठिन शब्दार्थ - णिम्ममे - निर्मम-ममकार रहित, णिरहंकारे - निरहंकार-अहंकार रहित, वीयरागो - वीतराग, अणासवो - अनास्रव-आम्रव रहित, संपत्तो - संप्राप्त कर, केवलणाणं - केवलज्ञान को, सासयं - शाश्वत, परिणिव्वुए - परिनिर्वृत - परम शांति . पाता है।
भावार्थ - ममत्व-रहित, अहंकार-रहित, वीतराग और आस्रव रहित बना हुआ मुनि केवलज्ञान को प्राप्त कर के सदा के लिए परिनिर्वृत-सुखी हो जाता (मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेता) है। ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - अनगार मार्ग का प्रभु आज्ञानुसार पालन करने वाला शारीरिक और मानसिक सभी दुःखों से मुक्त होकर शाश्वत सुख स्थान - मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। गाथा में सिर्फ केवलज्ञान शब्द दिया है किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं। इसलिए यहाँ केवलज्ञान' शब्द से केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों का ग्रहण कर लिया गया है।
॥ इति अनगार मार्ग गति नामक पैंतीसवां अध्ययन समाप्त।।
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