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उत्तराध्ययन सूत्र - पैंतीसवाँ अध्ययन 000000000000000000000000000000000000000000000000000000
स्वादवृत्ति-निषेध अलोले ण रसे गिद्धे, जिब्भादंते अमुच्छिए। ण रसट्ठाए भुंजिज्जा, जवणट्ठाए महामुणी॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - अलोले - 'अलोलुप, रसे - रस-स्वाद में, ण गिद्धे - गृद्ध - आसक्त न हो, जिब्भादंते - जिह्वा को वश में रखने वाला, अमुच्छिए- अमूर्च्छित, रसट्ठाएरस के लिए, ण भुंजिज्जा - भोजन न करे, जवणट्ठाए - यापनार्थ - संयम यात्रा के निर्वाहार्थ।
भावार्थ - सरस भोजन में लोलुपता-रहित, रसों में गृद्धि-रहित, जिह्वाइन्द्रिय को वश में रखने वाला और मूर्छा (आसक्ति) रहित महामुनि रसार्थ-स्वाद के लिए अथवा शारीरिक धातुओं की वृद्धि के लिए आहार न करे किन्तु संयम रूप यात्रा के निर्वाह के लिए ही आहार करे।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में स्पष्ट किया गया है कि साधु साध्वी जीवन निर्वाह के लिए आहार करे, स्वाद के लिए नहीं। अतः साधक को निम्न चार बातों का ध्यान रखना आवश्यक है - १. वह जिह्वालोलुप न हो २. अपनी जीभ को वश में रखे ३. किसी भी खाद्य पदार्थ में मूर्च्छित न हो ४. रस (स्वाद) में गृद्ध न हो। प्रस्तुत गाथा में आए हुए 'रसट्ठाए' शब्द का वृत्तिकार ने वैकल्पिक अर्थ - धातु विशेष किया है। शरीर की प्रधान धातुएँ सात हैं - रस, रक्त, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र। इन धातुओं के उपचय के लिए रस का यह अर्थ भी हो सकता है।
मान-सम्मान निषेध अच्चणं रयणं चेव, वंदणं पूयणं तहा। इडिसक्कार-सम्माणं, मणसा वि ण पत्थए॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - अच्चणं - अर्चा, रयणं - रचना, वंदणं - वन्दना, पूयणं - पूजा, इतिसक्कार-सम्माणं - ऋद्धि, सत्कार और सम्मान की।
भावार्थ - अर्चा (चन्दनादि से पूजा) और रचना (स्वस्तिकादि की रचना) वंदना तथा विशिष्ट वस्त्रादि देने रूप पूजा, आमर्श औषधि आदि लब्धियों की ऋद्धि, सत्कार और सम्मान
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