SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२८ उत्तराध्ययन सूत्र - चौतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - इसके आगे भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवताओं के समूह में तेजो-लेश्या की स्थिति जिस प्रकार होती है उसे कहूँगा। पलिओवमं जहण्णा, उक्कोसा सागरा उ दुण्णहिया। पलियमसंखेजेणं, होइ भागेण तेऊए॥५२॥ कठिन शब्दार्थ - दुण्णहिया - द्विअधिक, पलियमसंखेज्जेणं - पल्योपम के असंख्यातवें, भागेण - भाग सहित। .. __भावार्थ - तेजो-लेश्या की जघन्य स्थिति एक पल्योपम और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग सहित द्वि अधिक-दो सागरोपम है। विवेचन - यह स्थिति वैमानिक देवों में समझनी चाहिए। क्योंकि सौधर्म देवलोक के देवों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम की तथा ईशान देवलोक के देवों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम से कुछ अधिक है तथा पहले और दूसरे इन दोनों देवलोकों के देवों में क्रमशः उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम तथा दो सागरोपम से कुछ अधिक की होती है। इस प्रकार वैमानिक देवों की अपेक्षा ही तेजो लेश्या की यह स्थिति घटित हो सकती है। दसवास-सहस्साई, तेउए ठिई जहणिया होड। दुण्णुदही पलिओवम, असंखभागं च उक्कोसा॥५३॥ भावार्थ - भवनपति और वाणव्यंतर देवों की अपेक्षा से तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है और ईशान देवलोक की अपेक्षा से उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग सहित दो सागरोपम की है। .. जा तेऊए ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमन्भहिया। जहण्णेणं पम्हाए, दस.उ मुहत्ताहियाइ उक्कोसा॥५४॥ कठिन शब्दार्थ - मुहताहियाइ - एक मुहूर्त अधिक। भावार्थ - तेजोलेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है उससे एक समय अधिक पद्यलेश्या की जघन्य स्थिति जाननी चाहिए और उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त अधिक दस सागरोपम है। जा पम्हाए ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमन्भहिया। जहण्णेणं सुक्काए, तेत्तीस-मुहत्तमन्भहिया॥५५॥ भावार्थ - जो पद्मलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति है उससे एक समय अधिक शुक्ललेश्या की जघन्य स्थिति होती है और उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम की है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy