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उत्तराध्ययन सूत्र - तेतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000
तेतीस-सागरोवमा, उक्कोसेण वियाहिया। ठिई उ आउकम्मस्स, अंतोमुहत्तं जहणिया॥२२॥
भावार्थ - आयु कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम कही गई है। ___ उदही-सरिस-णामाण, बीसई कोडिकोडीओ।
णामगोत्ताण उक्कोसा, अट्ठ मुहत्तं जहणिया॥२३॥
भावार्थ - नाम कर्म और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की होती है।
___ कर्मों के अनुभाग सिद्धाणणंतभागो य अणुभागा हवंति उ। सव्वेसु वि पएसग्गं, सव्व जीवेसु अइच्छियं ॥२४॥
कठिन शब्दार्थ - सिद्धाणं - सिद्धों के, अणंतभागो - अनंतवें भाग, अणुभागा - अनुभाग (कर्मों के रस विशेष) सव्व जीवेसु वि - सभी जीवों से भी, अइच्छियं - अधिक।
भावार्थ - सभी कर्म स्कन्धों के अनुभाग अर्थात् रस विशेष सिद्ध भगवन्तों के अनन्तवा भाग हैं और सब कर्मों के प्रदेशाग्र (परमाणु) सब जीवों से अनन्तगुणा अधिक हैं। .. विवेचन - सभी कर्मों के अनुभाग (रस विशेष) सिद्ध भगवान् के अनन्तवें भाग हैं किन्तु यह अनन्तवाँ भाग भी अनंत संख्या वाला ही समझना चाहिए। इन अनुभागों के प्रदेशाग्र (परमाणु) भवी, अभवी सभी जीवों से अनन्त गुणा अधिक हैं। .
हर एक जीव प्रतिसमय में अभव्यों से अनंतगुणा व सिद्धों के अनंतवें भाग जितने परमाणुओं से निष्पन्न स्कन्धों को ग्रहण करता है। प्रत्येक समय में ग्रहण होने वाले स्कन्धों की संख्या भी अभव्य से अनंतगुणी और सिद्धों के अनंतवें भाग जितनी होती है। इन स्कन्धों में प्रत्येक परमाणु (प्रदेश) में जो सुख दुःख देने की शक्ति होती है, उसे 'अनुभाग' कहते हैं और ये अनुभाग सिद्धों के अनंतवें भाग और अभव्यों से अनंतगुणे होते हैं। क्योंकि प्रतिसमय में ग्रहण होने वाले सब स्कन्धों के परमाणु (प्रदेश) इतने ही होते हैं। अतः अनुभागों की संख्या इतनी ही बताई है। यथा - "सिद्धाणणंतभागो उ, अणुभागा हवंति य' अब इस गाथा के उत्तरार्द्ध के द्वारा - (सव्वेसु वि पएसगं, सव्व जीवेसु अइच्छियं॥३४॥) एक अनुभाग (रसयुक्त परमाणु प्रदेश) में कितने प्रदेश अर्थात् सुख दुःख देने की
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