SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन सूत्र - बत्तीसवाँ अध्ययन तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रसे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुखं वइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा ण विमुच्चइ से ॥ ६६ ॥ भावार्थ - तृष्णाभिभूत - तृष्णा के वशीभूत बने हुए बिना दी हुई रसादि युक्त वस्तु को चुरा कर लेने वाले और रस विषयक परिग्रह में अतृप्त प्राणी के लोभ रूपी दोष से मायामृषाकपटपूर्वक असत्य भाषण की वृद्धि होती है तथापि ( कपटपूर्वक झूठ बोलने पर भी ) वह दुःख से विमुक्त नहीं होता है अर्थात् नहीं छूटता है। मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ७० ॥ २८६ बोलने के पहले और पीछे तथा प्रयोगकाल - झूठ बोलते समय भी भावार्थ मृषा- झूठ दुरन्त - दुष्ट हृदय वाला वह जीव दुःखी ही रहता है इसी प्रकार रस से अतृप्त जीव बिना दी हुई रसादि युक्त वस्तुओं को ग्रहण करता हुआ अनिश्र - सहाय रहित और दुःखी होता है। रसाणुरत्तस्स रस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? हुए को । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, णिव्वत्तइ जस्स कण दुक्खं ॥ ७१ ॥ कठिन शब्दार्थ - रसाणुरत्तस्स रसानुरक्त - रस में आसक्त बने भावार्थ - इस प्रकार रस में आसक्त बने हुए मनुष्य को सुख कहाँ हो सकता है उसे कभी भी किञ्चिन्मात्र सुख प्राप्त नहीं हो सकता । जिस रसादि युक्त पदार्थ को प्राप्त करने के लिए जीव ने अपार कष्ट उठाया था, उस रसादि युक्त पदार्थ के उपभोग में भी वह अत्यन्त क्लेश और दुःख पाता है (तृप्ति न होने के कारण उसे दुःख होता है ) । एमेव रसम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोह परंपराओ । पट्ठचित्तो यचिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥७२॥ - Jain Education International - भावार्थ इसी प्रकार अमनोज्ञ रस में प्रद्वेष को प्राप्त हुआ जीव दुःखौघपरम्परा उत्तरोत्तरं दुःख - समूह की परम्परा को प्राप्त होता है और अतिशय द्वेष से दूषित चित्त वाला वह a अशुभ कर्मों को बाँधता है जिससे उसे फिर विपाक में अर्थात् उन कर्मों का फल भोगने के समय दुःख होता है। रसे विरतो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोह-परंपरेण । ण लिप्पड़ भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी - पलासं ॥७३॥ For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy