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उत्तराध्ययन सूत्र - बत्तीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
कठिन शब्दार्थ - गंधाणुगासाणुगए - गंधानुगाशानुगत - गंध की आशा के पीछे भागता हुआ।
भावार्थ - गंधानुगाशानुगत - गन्ध की आशा से उसका अनुसरण करने वाला अर्थात् गन्ध की आसक्ति में फँसा हुआ जीव अनेक प्रकार के चराचर - त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है और वह बाल-अज्ञानी जीव उन जीवों को अनेक चित्रों से अर्थात् उपायों से परिताप उपजाता है और अपने ही स्वार्थ में तल्लीन बना हुआ वह क्लिष्ट-कुटिल जीव अनेक जीवों को पीड़ित करता है।
गंधाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खण-सण्णियोगे। वए वियोगे य कहं सुहं से, संभोग-काले य अतित्तिलाभे॥५४॥ कठिन शब्दार्थ - गंधाणुवाएण - गंधानुपात - गंध में आसक्त।
भावार्थ - गन्ध में आसक्त एवं परिग्रह से मूर्छित बने हुए जीव को उसे उत्पन्न करने में, उसकी रक्षा करने में, सम्यक् प्रकार से उपयोग करने में, उसका विनाश तथा वियोग हो जाने पर कैसे सुख प्राप्त हो सकता है अर्थात् कभी सुख प्राप्त नहीं हो सकता, प्रत्युत दुःख ही होता है और उसका उपभोग करने के समय में भी उसे तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है।
गंधे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो ण उवेइ तुहिँ। अतुट्ठि-दोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययइ अदत्तं ॥५५॥ कठिन शब्दार्थ - गंधे - गंध में।
भावार्थ - गन्ध में अतृप्त बना हुआ और गन्ध विषयक परिग्रह में आसक्त एवं विशेष आसक्त बना हुआ जीव संतोष को प्राप्त नहीं होता है, अतुष्टि दोष - असंतोष रूपी दोष से दुःखी बना हुआ तथा लोभ से मलिन चित्त वाला जीव दूसरों की अदत्त - बिना दी हुई चीजों को ग्रहण करता है अर्थात् अपनी इष्ट वस्तु को प्राप्त करने के लिए चोरी करता है।
तण्हाभिभूयस्स अदत्त-हारिणो, गंधे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्था वि दुक्खा ण विमुच्चइ से॥५६॥
भावार्थ - तृष्णाभिभूत - तृष्णा के वशीभूत बने हुए बिना दी हुई सुगन्धित वस्तु को चुरा कर लेने वाले और गंध विषयक परिग्रह में अतृप्त प्राणी के लोभ रूपी दोष से माया मृषावाद
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