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________________ ॐ णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री उत्तराध्ययन सूत्र भाग-२ (मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) समुद्दपालीयंणामंएगवीसइमंअज्डायणं समुद्रपालीय नामक इक्कीसवां अध्ययन उत्थानिका - इस अध्ययन में समुद्रपाल के जन्म से लेकर मोक्ष प्राप्ति तक की घटनाओं से संबंधित वर्णन होने के कारण इसका नाम 'समुद्रपालीय' रखा गया है। । कभी-कभी छोटी से छोटी घटना भी किस प्रकार प्रेरणा-प्रदीप बन जाती है, यह समुद्रपाल के जीवन वृत्तान्त से स्पष्ट होता है। वध्यभूमि की ओर ले जाते हुए एक अपराधी को देख कर समुद्रपाल के अंतःकरण में वैराग्य-दीप जल उठा। उन्होंने चिंतन किया कि - 'जो जैसे भी अच्छे या बुरे कर्म करता है, उसका फल उसे देर-सबेर भोगना ही पड़ता है। इस प्रकार कर्म और कर्मफल पर गहराई से चिंतन करते-करते उनका मन कर्मबंधनों को तोड़ने के लिए तिलमिला उठा। उन्होंने माता-पिता की अनुमति ले कर दीक्षा ग्रहण कर ली। समुद्रपाल मुनि बन कर विशुद्ध संयम का पालन करके और सर्व कर्म क्षय करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गये। - कर्म विपाक का चिंतन और संयम में जागरूकता, यही इस अध्ययन का मुख्य संदेश है। प्रस्तुत है इसकी पहली गाथा - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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