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उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन
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उनमें से सर्वप्रथम, जहाणुपुव्विं - अनुक्रम से, अट्ठावीसइविहं - अट्ठाईस प्रकार के, मोहणिज्जं कम्मं - मोहनीय कर्म का, उग्घाएइ घात (क्षय) करता है, पंचविहं णाणावरणिज्जं पांच प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म का, णवविहं दंसणावरणिज्जं नौ प्रकार के दर्शनावरणीय, पंचविहं अंतरायं पांच प्रकार के अंतराय कर्म, कम्मंसे कर्माश-कर्मों का, जुगवं युगपत् - एक साथ, खवेइ- क्षय कर डालता है, अणुत्तरं - अनुत्तर (प्रधान), अणंतं - अनन्त, कसिणं - सम्पूर्ण, पडिपुण्णं - परिपूर्ण, णिरावरणं - निरावरण-आवरण रहित, वितिमिरं अन्धकार रहित, विसुद्धं विशुद्ध, लोगालोगप्पभावं लोक और अलोक का प्रकाशक,
केवल सहाय रहित, वरणाणदंसणं श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन को, समुप्पाडेइ - प्राप्तं कर लेता है, सजोगी - सयोगी, ईरियावहियं - ईर्यापथिक, कम्मं - कर्मक्रिया का, णिबंधइ बंध करता है, सुहफरिसं - स्पर्श सुखरूप, दुसमयडिइयं - दो समय की स्थिति, पढमसमए बद्धं - प्रथम समय में बंध, बिइयसमय वेइयं द्वितीय समय में वेदन, तइयसमए णिज्जिण्णंतृतीय समय में निर्जीर्ण, पुठ्ठे - स्पर्श, उदीरियं - उदीरित उदय, सेयाले आगामीकाल में, अकम्मं- अकर्म कर्म रहित ।
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भावार्थ उत्तर प्रेय्य (प्रेम-राग) द्वेष मिथ्यादर्शनविजय- राग-द्वेष और मिथ्यादर्शन के विजय से जीव सब से पहले ज्ञान दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए उद्यत होता है और बाद में अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म का यथानुपूर्वी यथाक्रम से क्षय करता है। इसके बाद पाँच प्रकार के ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार के दर्शनावरणीय, पाँच प्रकार के अन्तराय, इन तीनों कर्मा - कर्मों को एक साथ क्षय करता है इसके बाद अनुत्तर अनन्त कृत्स्न् - सम्पूर्ण प्रतिपूर्ण निरावरण- आवरण रहित अन्धकार रहित विशुद्ध लोकालोकप्रभावक - लोकालोक को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करता है। जब तक सयोगी रहता है तब तक ईर्यापथिक क्रिया का बन्ध होता है, किन्तु इसका विपाक अति सुखकर होता है और स्थिति केवल दो समय की होती है उसका प्रथम समय में बन्ध होता है, दूसरे समय में उदय होकर वेदा जाता है और तीसरे समय में निर्जीर्ण अर्थात् क्षय हो जाता है। इस प्रकार प्रथम समय में बन्ध और स्पर्श, दूसरे समय में उदीरित उदय और वैदित-वेदन और तीसरे समय में निर्जीर्णनिर्जरा हो कर आगामी काल अर्थात् चौथे समय में जीव सर्वथा कर्म-रहित हो जाता है।
विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में रागद्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय का फल बतलाया गया है। इन पर विजय पाने वाला जीव रत्नत्रयी की आराधना में सतत तत्पर रहता हुआ सर्वप्रथम मोहनीय
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