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सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - श्रोत्रेन्द्रिय निग्रह २१५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
कठिन शब्दार्थ - चरित्तसंपण्णयाए - चारित्र-सम्पन्नता से, सेलेसीभावं - शैलेषी अवस्था को।
भावार्थ - उत्तर - चारित्र-सम्पन्नता से शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है और शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुआ अनगार चार केवलिकर्मांश - केवलि अवस्था में रहे हुए चार भवोपग्राही अघाती कर्मों का क्षय कर देता है इसके बाद सिद्ध हो जाता है, बुद्ध हो जाता है, मुक्त हो जाता है, कर्माग्नि को बुझा कर शीतल हो जाता है और सभी दुःखों का अंत कर देता है।
विवेचन - मूल पाठ में 'केवलिकम्मंसे' शब्द आया है। यहाँ पर कर्मांश शब्द का टीकाकार ने सत्कर्म ऐसी संस्कृत छाया की है। अंश शब्द का 'सत्' शब्द पर्यायवाची दिया है।
शैल का अर्थ है - पर्वत और ईश का अर्थ है स्वामी, राजा। संसार के समस्त पर्वतों में जम्बूद्वीप का मेरु पर्वत सबसे ऊँचा है अर्थात् एक हजार योजन जमीन में ऊंडा है और ६६ हजार योजन धरती से ऊपर ऊँचा है इस प्रकार मेरु पर्वत की ऊँचाई एक लाख योजन की है। वह अचल अडोल अत्यन्त स्थिर है। उसी प्रकार मन, वचन और काया इन तीनों योगों के निरोध से मुनि भी अचल और अडोल हो जाते हैं। इस अचलता, अडोलता और स्थिरता का नाम ही शैलेशी भाव है। ...
६२. श्रोबेन्द्रिय निग्रह ___ सोइंदियणिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह (श्रोत्रेन्द्रिय को वश करने) से जीव को क्या लाभ होता है? . ...
सोइंदिय-णिग्गहेणं मणुण्णामणुण्णेसु सद्देसु रागदोस-णिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं च णं कम्मं ण बंधइ, पुव्वबद्धं च णिजरेइ॥६२॥
कठिन शब्दार्थ - सोइंदिय-णिग्गहेणं - श्रोत्रेन्द्रिय निग्रह से, मणुण्णामणुण्णेसु - मनोज्ञ और अमनोज्ञ, सद्देसु - शब्दों में, रागदोस-णिग्गहं - रामद्वेष का निग्रह, तप्पच्चइयं - तन्निमित्तक।
.. भावार्थ - उत्तर - श्रोत्रेन्द्रिय के निग्रह से.मनोज्ञ और अमनोज्ञ (प्रिय और अप्रिय) शब्दों में रागद्वेष का निग्रह होता है और तन्निमित्तक (श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी) कर्म का बंध नहीं होता, और पहले बाँधे हुए कर्मों की निर्जरा कर देता है।
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