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________________ सम्यक्त्व पराक्रम - - - सूई, प गिर जाने पर, संसारे संसार में, संपाउणइ - संप्राप्त करता है, णाणविप्णय-तव-चरित -जोगे ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों को, ससमय परसमय विसारए - स्व सिद्धान्त और पर सिद्धान्त में विशारद, असंघाय णिज्जे असंघाती हार नहीं पाता, प्रामाणिक । भावार्थ उत्तर ज्ञान सम्पन्नता से सभी पदार्थों का अभिगम ज्ञान होता है। ज्ञानसम्पन्न जीव चतुर्गति रूप संसार कान्तार - वन में नहीं भटकता है। जिस प्रकार डोरे सहित सूई कूड़े कचरे में गिर जाने पर भी गुम नहीं होती, वैसे ही सश्रुत - श्रुतज्ञानी जीव संसार में नहीं भटकता है किन्तु ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों को प्राप्त करता है । स्वसमय और परसमय का वादी (अपने सिद्धांत और पर सिद्धान्त का ) विशारद - ज्ञाता होता है और असंघातनीय प्रतिवादी द्वारा शास्त्रार्थ में पराभव (हार) को प्राप्त नहीं होता। अतएव सबके लिये माननीय ( प्रामाणिक पुरुष ) होता है । विवेचन ज्ञान सम्पन्नता से आशय है - श्रुतज्ञान की प्राप्ति से युक्त होना क्योंकि यहां ज्ञान सम्पन्नता का फल सर्वभावों का बोध बताया है। Jain Education International सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - दर्शन सम्पन्नता ६०. दर्शन सम्पन्नता २१३ 000 - श्रुतज्ञान सम्पन्नता से जीव सर्व पदार्थों के रहस्य को जान लेता है तथा चतुर्गति रूप संसार अटवी में रुलता नहीं। जैसे डोरे सहित सूई यदि कहीं गिर भी जाए तो वह गुम नहीं होती, ढूंढने पर जल्दी मिल जाती है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान से युक्त जीव संसार में भटकता नहीं क्योंकि श्रुतज्ञान से उसे समय-समय पर मार्गदर्शन मिलता रहता है। वह उत्तरोत्तर श्रुत का अभ्यास करता हुआ अवधि आदि ज्ञानों को तथा विनय, तप और चारित्र के योगों को प्राप्त कर लेता है। स्व, पर सिद्धान्तों का ज्ञाता होने वह शास्त्रार्थ में किसी से हारता नहीं और प्रामाणिक पुरुष हो जाता है। For Personal & Private Use Only - दंसणसंपण्णयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? भावार्थ प्रश्न हे भगवन् ! दर्शन - सम्पन्नता ( क्षायोपशमिक सम्यक्त्व) से जीव को क्या लाभ होता है? दंसणसं पण्णयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ, परंण विज्झायड़ परं अविज्झाएमाणे अणुत्तरेणं णाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्मं भावेमाणे विहरइ ॥ ६० ॥ : www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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