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उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू! उन भगवन्तों ने इस प्रकार कहा था सो मैंने सुना है। इस जिनशासन में निश्चय ही काश्यप गोत्रीय थमण भगवान् महावीर स्वामी ने सम्यक्त्व पराक्रम नामक अध्ययन प्रतिपादित किया है जिस पर सम्यक् प्रकार से श्रद्धा कर के, प्रतीति कर के, रुचि कर के, स्पर्श (ग्रहण) कर के, पालन कर के, तिर कर - अध्ययन अध्यापन आदि द्वारा उसको समाप्त करके, कीर्तन कर के, शुद्ध कर के, आराधन कर के, आज्ञानुसार पालन कर के बहुत से जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, सकल कर्मों से मुक्त होते हैं, कर्म रूपी दावानल से छूट कर शान्त होते हैं और सभी प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों का अन्त करते हैं।
विवेचन - समान शब्दों के व्युत्पत्तिजन्य भिन्न अर्थ - . श्रद्धा करना - केवली भगवान् के वचन सत्य हैं, ऐसा विश्वास करना। प्रतीति करना - हेतु युक्ति आदि के द्वारा विशेष निश्चय करना। रुचि करना - भगवान् के वचनों को मैं भी जीवन में उतारूँ, ऐसी अभिलाषा करना।
स्पर्श करना - मन, वचन, काया से स्वीकार करना। इसी प्रकार पालन करना, तीर (किनारे) तक पहुँचना।
भगवान् के वचनों को मैंने जीवन में उतारा, यह अच्छा किया, इस प्रकार कीर्तन (प्रशंसा) करना।
शोधन करना - अतिचारों की शुद्धि करना। . आराधन करना - सूत्रोक्त विधि से पालन करना। अनुपालन करना - तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा के अनुसार पालन करना। सिद्ध्यन्ति - संसार के सारे कार्य सिद्ध हो गये, कोई कार्य करना बाकी नहीं रहा। बुद्धयन्ते - केवल ज्ञान, केवल दर्शन के द्वारा सम्पूर्ण लोकालोक को जानते और देखते हैं। मुच्यन्ते - आठों कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं।
परिनिर्वान्ति - सम्पूर्ण कर्म रूपी अग्नि के सर्वथा बुझ जाने के कारण शीतलीभूत बन जाते हैं। अतएव शारीरिक और मानसिक दुःखों का सर्वथा अन्त कर देने के कारण एवं सिद्धि गति नामक स्थान की प्राप्ति से अव्याबाध सुख के भोक्ता बन जाते हैं।
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