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उत्तराध्ययन सूत्र - अट्ठाईसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कर लेने पर उनमें से एक गुरु पद पर स्थापित किया जाता है और शेष सात वैयावृत्य करते हैं
और गुरु पद पर रहा हुआ साधु तप करना शुरू करता है। यह भी छह मास तक तप करता है। इस प्रकार अठारह मास में यह परिहार तप का कल्प पूर्ण होता है। परिहार तप पूर्ण होने पर वे साधु या तो इसी कल्प को पुनः प्रारम्भ करते हैं या जिन कल्प धारण कर लेते हैं या वापिस गच्छ में आ जाते हैं। यह चारित्र, छेदोपस्थापनीय चारित्र वालों के ही होता है, दूसरों के नहीं। . निर्विश्यमानक और निर्विष्टकायिक के भेद से परिहार विशुद्धि चारित्र दो प्रकार का है। __तप करने वाले पारिहारिक साधु निर्विश्यमानक कहलाते हैं। उनका चारित्र निर्विश्यमानक परिहार विशुद्धि चारित्र कहलाता है।
तप करके वैयावृत्य करने वाले अनुपारिहारिक साधु तथा तप करने के बाद गुरु पद रहा हुआ साधु निर्विष्टकायिक कहलाता है। इनका चारित्र, निर्विष्टकायिक परिहार विशुद्धि चारित्र कहलाता है।
४. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र - सम्पराय का अर्थ कषाय होता है। जिस चारित्र में सूक्ष्म सम्पराय अर्थात् संज्वलन लोभ का सूक्ष्म अंश होता है, उसे सूक्ष्म सम्पराय चारित्र कहते
विशुद्ध्यमान और संक्लिश्यमान के भेद से सूक्ष्म सम्पराय चारित्र के दो भेद हैं।
क्षपक श्रेणी एवं उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर शुद्ध रहने से उनका सूक्ष्म सम्पराय चारित्र विशुद्ध्यमान कहलाता है। उपशम श्रेणी से गिरते हुए साधु के परिणाम संक्लेशयुक्त होते हैं, इसलिए उनका सूक्ष्म सम्पराय चारित्र संक्लिश्यमान कहलाता है।
५. यथाख्यात चारित्र - सर्वथा कषाय का उदय न होने से अतिचार रहित पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध चारित्र, यथाख्यात चारित्र कहलाता है। अथवा अकषायी साधु का निरतिचार यथार्थ चारित्र यथाख्यात चारित्र कहलाता है।
छद्मस्थ और केवली के भेद से यथाख्यात चारित्र के दो भेद है अथवा उपशांत मोह और क्षीण मोह या प्रतिपाती और अप्रतिपाती के भेद से इसके दो भेद हैं।
सयोगी केवली और अयोगी केवली के भेद से केवली यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं।
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