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________________ १३८ उत्तराध्ययन सूत्र - सत्ताईसवाँ अध्ययन commOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOK कठिन शब्दार्थ - भिक्खालसिए - भिक्षाचरी करने में आलसी, ओमाण-भीरुए - अपमान से भयभीत होने वाला, थद्धे - स्तब्ध-अहंकारी, अणुसासम्मि - अनुशासित करने में, हेऊहिं - हेतुओं, कारणेहि - कारणों से। ____भावार्थ - कोई एक शिष्य भिक्षा लाने में आलसी बन गये हैं। कोई एक शिष्य अपमान भीरु बन गये हैं (भिक्षा माँगने में अपना अपमान समझते हैं) और कोई एक अहंकारी बन गये हैं। ऐसे शिष्यों को जब मैं योग्य शिक्षा देता हूँ तो वे अनेक हेतु और कारणों से कुतर्क करते हैं। . सो वि अंतरभासिल्लो, दोसमेव पकुव्वइ। आयरियाणं तु वयणं, पडिकूलेइऽभिक्खणं॥११॥ कठिन शब्दार्थ - अंतरभासिल्लो - बीच में बोलने लगता है, दोसमेव - दोष ही, पकुव्वइ - निकालता है, आयरियाणं - आचार्यों के, वयणं - वचन के, पडिकूलेइ - प्रतिकूल आचरण करता है, अभिक्खणं - बार बार। भावार्थ - जब गुरु महाराज शिक्षा देते हैं तब भी वह दुष्ट शिष्य बीच ही में बोल उठता . है और गुरु महाराज का ही दोष निकालता है और बार-बार आचार्य महाराज के वचनों से . प्रतिकूल आचरण करता है। ... ण सा ममं वियाणाइ, ण वि सा मज्झ दाहिइ। णिग्गया होहिइ मण्णे, साह अण्णोऽत्थ वच्चउ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - वियाणाइ - जानती है, मज्झ - मुझे, दाहिइ - देगी, णिग्गया - बाहर निकल गई, होहिइ - होगी, मण्णे - समझता हूं, साहू - श्रेष्ठ है, अण्णो - अन्य को, वच्चउ - भेज दें। भावार्थ - जब गुरु महाराज भिक्षा के लिए भेजते हैं, अथवा किसी ग्लान साधु के लिए विवक्षित औषधि या आहारादि लाने के लिए कहते हैं, तब अविनीत शिष्य बहाना बनाता हुआ इस प्रकार उत्तर देता है कि 'वह श्राविका तो मुझे पहचानती ही नहीं है अथवा वह मुझे भिक्षा देगी ही नहीं। मैं समझता हूँ इस समय वह घर से बाहर गई हुई होगी। अच्छा तो यह है कि इस कार्य के लिए आप किसी दूसरे साधु को भेज दें' अथवा कोई अविनीत शिष्य ऐसा भी कह देता है कि 'आप बार-बार मुझे ही मुझे कहते हैं। मेरे सिवाय दूसरे साधु भी तो हैं, उन्हें क्यों नहीं कहते?' इस प्रकार अविनयपूर्वक उत्तर देकर वे गुरु महाराज को खेदित करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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