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पारियकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तओ गुरुं ।
राइयं तु अइयारं, आलोएज जहक्कमं ॥ ४६ ॥
भावार्थ - कायोत्सर्ग पार कर फिर गुरु महाराज को वन्दना करके रात्रि सम्बन्धी अतिचारों की यथाक्रम से आलोचना करे ।
उत्तराध्ययन सूत्र - छब्बीसवाँ अध्ययन
पडिक्कमित्तु णिस्सल्लो, वंदित्ताण तओ गुरुं ।
काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥ ५० ॥
भावार्थ - उसके बाद प्रतिक्रमण (अतिचारों की आलोचना) करके शल्य रहित होकर गुरु महाराज को वन्दना करके उसके बाद सभी दुःखों से छुड़ाने वाला कायोत्सर्ग करे । किं तवं पडिवज्जामि, एवं तत्थ विचिंतए ।
काउस्सग्गं तु पारिता, करिज्जा जिणसंथवं ॥ ५१ ॥
कठिन शब्दार्थ - किं कौनसा तवं तप, पडिवज्जामि - अंगीकार करूं, विचिंत - विचार करे, जिणसंथवं - जिनसंस्तव जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति ।
भावार्थ कायोत्सर्ग में इस प्रकार विचार करे कि, आज मैं कौन-सा तप अंगीकार करूँ - इस प्रकार चिन्तन के पश्चात् कायोत्सर्ग पार कर जिनसंस्तव (जिन भगवान् की स्तुति रूप 'लोगस्स उज्जोयगरे' आदि) करे ।
विवेचन - जब कायोत्सर्ग नामक पांचवें आवश्यक का आरंभ करे, तब उसमें इस प्रकार चिंतन करे कि - 'आज मैं कौन से तप का ग्रहण करूँ?' कारण यह है कि भगवान् महावीर स्वामी ने षट् मास पर्यन्त तप किया था । अतः मैं भी देखूं कि मुझ में कितनी तप करने की शक्ति विद्यमान है। तप की अपार महिमा है। आत्मशुद्धि का यही एक सर्वोपरि विशिष्ट मार्ग है और इसी के द्वारा संसारी जीव विशुद्ध होकर परम कल्याण रूप मोक्ष को प्राप्त होते हैं। तप बाह्य और आभ्यन्तर भेद से बारह प्रकार का है। सो षट् मास से लेकर पांच मास, चार मास, तीन मास, दो मास और एक मास तथा पक्ष और अर्ध पक्ष यावत् यथाशक्ति एक दो दिन तक भी किया जा सकता है।
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वर्तमान में प्रत्येक साधक के तप चिंतन की विधि का बराबर चिंतन नहीं समझ पाने से पूर्वाचार्यों ने इस तप चिंतन के स्थान पर दो लोगस्स के कायोत्सर्ग को मानकर प्रायश्चित रूप
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