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यज्ञीय - समभावी जयघोष मुनि 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 गये हैं। किन्तु साहित्य (हिन्दी व संस्कृत काव्य) में छठा रस और माना गया है वह है-लवण (नमक)। यथा 'षष्ठो रसेः लवणः'।
आचारांग आदि अनेक आगमों में 'रस' पांच प्रकार के बताये हैं। लवण रस को आगमकार स्वतंत्र रस नहीं मान कर 'संयोगी रस' (दो तीन आदि रसों के संयोग से उत्पन्न) एवं सर्वानुगत रस (पांचों रसों में रहा हुआ) मानते हैं अतः लवण रस का पांचों रसों में समावेश हो जाने से छठा ‘लवण रस' नहीं माना है। अन्यत्र आगमों में (दशवकालिक सूत्र अ० ५ उ० १ गाथा ६७) जहाँ छह रस बताये हैं वहाँ अपेक्षा विशेष से उसकी स्वतंत्र विवक्षा समझनी चाहिये। अन्यथा पांच रस ही होते हैं। __ मारवाड़ी में लवण (नमक) को 'लूण' कहते हैं इसलिए. मारवाड़ी में कहावत है 'लूण बिना सब रसोई पूण' अर्थात् जिस रसोई (भोजन) में लूण नहीं हो तो वह रसोई पूण (अधूरी) मानी गई है।
समभावी जयघोष मुनि सो तत्थ एवं पडिसिद्धो, जायगेण महामुणी। ण वि रुट्ठो ण वि तुट्ठो, उत्तमट्ठ-गवेसओ॥६॥ .
कठिन शब्दार्थ - पडिसिद्धो - इंकार किये जाने पर, जायगेण - याजक के द्वारा, ण .वि रुट्ठो - न तो रुष्ट (क्रुद्ध) हुआ, ण वि तुट्ठो - न तुष्ट हुआ, उत्तमट्ठ गवेसओ - उत्तमार्थ - मोक्ष का गवेषक।
- भावार्थ - वहाँ यज्ञ करने वाले विजयघोष द्वारा इस प्रकार निषेध कर देने पर वे जयघोष महामुनि न रुष्ट हुए और न तुष्ट हुए (उन्होंने समभाव रखा)। क्योंकि वे उत्तम अर्थ (मोक्ष) के गवेषक (अभिलाषी) थे।
विवेचन - जो आत्मार्थी या मोक्षार्थी होता है वह सामान्य अज्ञजनों द्वारा की गई निन्दाप्रशंसा से न तो रुष्ट होता है और न तुष्ट, क्योंकि वह जानता है कि राग-द्वेष करने से अथवा क्रोधादि कषाय से अशुभ कर्मों का बन्ध होता है, जो मुक्ति में बाधक है। यही कारण था कि मोक्षार्थी महामुनि जयघोष, विजयघोष द्वारा भिक्षा निषेध संबंधी नीरस एवं अनादर सूचक वचनों को सुन कर भी निजस्वभाव में स्थिर रहे। उनके चित्त में न तो खेद हुआ और न ही प्रसन्नता क्योंकि वे मोक्ष के गवेषक थे।
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