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- पैंतीसवाँ अध्ययन - अनगार मार्ग गति - जिस साधक ने गृहस्थ धर्म का त्याग कर सर्वविरति अनगार धर्म स्वीकार किया है, उसे अपने अनगार धर्म का पूर्ण निष्ठा से पालन करना चाहिए। यदि अनगार धर्म अंगीकार करके भी जो अगार (गृहस्थ) धर्म सम्बन्धी सभी बातों का त्याग नहीं करता है, तो वह सच्चा संयमी साधक नहीं कहा जा सकता। इस अध्ययन में अनगार धर्म का यथाविध पालन करने का स्वरूपं बतला कर उसके फल का निरूपण किया गया है।
छत्तीसवाँ अध्ययन - जीवाजीव विभक्ति - संसार में मुख्य दो ही तत्त्व हैं - जीव और अजीव। इनके संयोग और वियोग से ही शेष सात तत्त्वों का प्रादुर्भाव और अभाव होता है। अतएव साधक को इन दो तत्त्वों की गहन जानकारी होना परम आवश्यक है। दशवैकालिक सूत्र में बतलाया गया है कि जो साधक जीव-अजीव के स्वरूप को भली भांति नहीं जानता है, वह संयम का शुद्ध पालन नहीं कर सकता है। जीव के साथ अजीव (कर्मों) का संयोग अनादि अनन्त काल से है। यह संयोग ही संसार का मूल है। जिस दिन जीव के साथ अजीव का सम्बन्ध सर्वथा छट जावेगा। उस दिन जीव का संसार परिभ्रमण समाप्त हो जावेगा। इस अध्ययन में जीव और अजीव के स्वरूप का विस्तृत रूप से निरूपण किया गया है।
हमारे संघ द्वारा उत्तराध्ययन सूत्र तीन भागों में मूल अन्वयार्थ, संक्षिप्त विवेचन युक्त पूर्व में प्रकाशित हो रखा है। जिसका अनुवाद समाज के जाने माने विद्वान पं. र. श्री घेवरचन्दजी बांठिया न्याय व्याकरण तीर्थ, सिद्धान्त शास्त्री ने अपने गृहस्थ जीवन में किया था। जिसे स्वाध्याय प्रेमी श्रावक-श्राविका वर्ग ने काफी पसन्द किया। फलस्वरूप उक्त प्रकाशन की आठ आवृत्तियाँ संघ द्वारा प्रकाशित हो चुकी है। अब संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्र्तगत इसका प्रकाशन किया जा रहा है। इसके अनुवाद का कार्य मेरे सहयोगी श्रीमान् पारसमलजी सा. चण्डालिया ने प्राचीन टीकाओं के आधार पर किया है। आपके अनुवाद को धर्मप्रेमी सुश्रावक श्रीमान् श्रीकांतजी गोलछा दल्लीराजहरा ने वर्तमान ज्ञानगच्छाधिपति श्रुतधर भगवंत की आज्ञा से आगमज्ञ पूज्य लक्ष्मीचन्दजी म. सा. को सुनाने की कृपा की। पूज्यश्री ने जहाँ कहीं भी आगमिक धारणा सम्बन्धी न्यूनाधिकता महसूस की वहाँ संशोधन करने का संकेत
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