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________________ चतुरंगीय - उपसंहार . ६५ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ अप्पडिरूवे - अप्रतिरूप - उपमा रहित, अहाउयं - यथा आयु-आयु पर्यन्त, पुव्विं - पूर्व, विसुद्ध - निर्मल, सद्धम्मे - सद्धर्म में, बोहिं - बोधि को, बुज्झिया - प्राप्त करके। . भावार्थ - यथाआयु - अपनी आयु के अनुसार मनुष्य भव के अनुपम भोगों को भोग कर पूर्व भव में निदान रहित शुद्ध धर्म का आचरण करने के कारण वह शुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। ___पुण्यात्मा जीव मनुष्य के अनुपम कामभोगों को भोग कर पूर्व जन्म में अर्जित किये हुए निदान रहित शुद्ध धर्म के अनुसार निष्कलंक बोधि को प्राप्त कर लेता है। निष्कलंक बोधि आर्हत् (जिन) धर्म की प्राप्ति रूप होती है। विशुद्ध धर्म अथवा बोधि की प्राप्ति के बाद वे पुण्यात्मा जीव क्या करते हैं? यह आगे की गाथा में बताया जाता है - उपसंहार चउरंगं दुल्लहं णच्चा, संजमं पडिवज्जिया। तवसा धुयकम्मसे, सिद्धे हवइ सासए॥ २०॥ || चाउरंगिज्जं णाम तइयं अज्झयणं समत्तं॥ कठिन शब्दार्थ - चउरंगं - चारों अंगों को, दुल्लहं - दुर्लभ, णच्चा - जान कर, संजमं - संयम को, पडिवजिया - ग्रहण करके, तवसा - तप से, धूयकम्मंसे - धूतकर्माश - कर्मों के अंश को दूर करने वाला, सिद्धो - सिद्ध, सासए - शाश्वत, हवइ - होता भावार्थ - उक्त चार अंगों को दुर्लभ जान कर संयम अंगीकार करता है और तप से सम्पूर्ण कर्मों को क्षय करके शाश्वत सिद्ध हो जाता है। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - ऊपर जिन चारों अंगों का वर्णन किया गया है उनकी प्राप्ति को दुर्लभ जान कर जिस जीव ने संयम को ग्रहण करके तपोऽनुष्ठान के द्वारा कर्माशों को अपनी आत्मा से सदा पृथक् कर दिया है, वह जीव शाश्वत - सदा रहने वाली सिद्धि गति - मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। ति बेमि का तात्पर्य पूर्ववत् है। ॥ इति चतुरंगीय नामक तृतीय अध्ययन समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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