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उत्तराध्ययन सूत्र द्वितीय अध्ययन
पुट्ठो य दंसमसएहिं, समरे व महामुणी ।
जागो संगाम - सीसेवा, सूरे० अभिहणे परं ॥ १० ॥ कठिन शब्दार्थ - दंसमसएहिं डांस-मच्छरों से, समरे व
संग्राम की तरह, समभाव
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वाला, णागो - हाथी, संगामसीसे - संग्राम के अग्रभाग पर रहा हुआ, सूरे-सूरो- शूरवीर, हनन करता है, परं
अभि
अन्य शत्रु को ।
भावार्थ - जिस प्रकार संग्राम के अग्रभाग पर रहा हुआ हाथी और शूरवीर योद्धा, शत्रु के बाणों की परवाह न करते हुए शत्रु को मारता है और विजय प्राप्त करता है, उसी प्रकार उत्तम साधु डांस-मच्छर आदि के काटने रूप कष्ट की उपेक्षा करता हुआ, क्रोधादि भावशत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए आत्म-संग्राम में डटा रहे ।
विवेचन - दंशमशक आदि जीवों के सताये जाने पर भी साधु समभाव से इन कष्टों को सहन करे, इसी में उसकी शूरवीरता है ।
ण संतसेण वारिज्जा, मणपि णो पओसए ।
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५ दंशमशक परीषह
उवेहे णो हणे पाणे, भुंजंते मंस - सोणियं ॥११॥ कठिन शब्दार्थ ण संतसे - त्रास न देवे, ण वारेज्जा - न हटावे, मणंपि मन से भी, ण पओसए - द्वेष न करे, उवेहे - उपेक्षा करे, उदासीन (सम) भाव से रहे, णो हणे नहीं हने, पाणे प्राणियों को, भुंजंते - खाते हुए, मंससोणियं - मांस और रुधिर को ।
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भावार्थ - मांस और रक्त को चूसते हुए डांस - मच्छर आदि प्राणियों को मारे नहीं और न उन्हें त्रास ही पहुँचावे तथा उन्हें रोक कर अन्तराय भी न करे, यहाँ तक कि मन से भी उन परद्वेष न करे, किन्तु समभाव रखे।
. विवेचन प्रस्तुत गाथा में मच्छर, मक्खी आदि जंतुओं के प्रतिकार का साधु के लिए निषेध किया गया है।
दंशमशक आदि के उपद्रव से बचने के लिए वस्त्र आदि की गवेषणा करनी पड़ती है क्योंकि वस्त्रादि के ओढ़ने पर इनका उपद्रव बहुत कम हो जाता है। इसलिए अब अचेल परीषह का वर्णन किया जाता है।
पाठान्तर - सूरो
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