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________________ १८ उत्तराध्ययन सूत्र - पहला अध्ययन kartitikkakkakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk विवेचन - प्रस्तुत गाथा में गुरुजनों के अनुशासन को विनीत और अविनीत शिष्य किस रूप में ग्रहण करते हैं इस विषय को स्पष्ट किया गया है। यद्यपि गुरुजनों की हित शिक्षा विनीत और अविनीत दोनों ही शिष्यों के लिए भेद भाव से रहित - समान रूप से होती है तथापि ग्रहण करने वाले पात्र के अनुसार उसका परिणमन होता है। कुपात्र में डाला हुआ हित शिक्षा रूप दुग्धामृत भी विकृति भाव को प्राप्त कर विष के तुल्य हानिकारक हो जाता है। यहाँ पर 'हियं' शब्द से ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के हितों का ग्रहण है। आसन संबंधी विनयाचार ... आसणे उवचिट्टेजा, अणुच्चेऽकुक्कुए थिरे। अप्पुट्ठाई णिरुट्ठाई, णिसीएजऽप्पकुक्कुए॥३०॥ कठिन शब्दार्थ - आसणे - आसन पर, उवचिढेजा - बैठे, अणुच्चे - ऊंचा न हो, अकुक्कुए - अस्पंदमान (आवाज न करने वाले), थिरे - स्थिर, अप्पुट्ठाई - प्रयोजन होने पर भी बारबार न उठे, णिरुट्ठाई - बिना प्रयोजन न उठने वाला, णिसीएज - बैठे, अप्पकुक्कुए - हाथ पैर न चलाते हुए। भावार्थ - शिष्य को चाहिए कि गुरु महाराज से नीचे तथा अल्प मूल्य वाले चरचर शब्द न करने वाले स्थिर आसन पर हाथ पाँव आदि न हिलाते हुए बैठे और बिना प्रयोजन उठे-बैठे नहीं और प्रयोजन होने पर भी बार-बार उठे-बैठे नहीं। विवेचन - प्रस्तुत गाथा में शिष्य का आसन संबंधी विनयाचार किस प्रकार का होना चाहिए, इसका कथन किया गया है। गुरुजनों की अपेक्षा शिष्य का आसन हमेशा ही नीना होना चाहिए। अर्थात् विनीत शिष्य द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से गुरुजनों की अपेक्षा अपने को लघुता में रखे ताकि उसकी यह लघुता विनयाचार की सम्यक् आराधना से प्रभुता के उच्च सिंहासन पर विराजमान हो जाए। यथोचित काल में यथोचित कार्य कालेण णिक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे। अकालं च विवजित्ता, काले कालं समायरे॥३१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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