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________________ महानिग्रंथीय - मुनि के प्रति कृतज्ञता प्रकाशन Ratiriktakattititikaritrakattarai भावार्थ - हे महाभाग! आप अनाथों के नाथ हैं। हे संयति! आप समस्त प्राणियों के नाथ हैं। हे पूज्य! यदि कोई मेरा अपराध हुआ हो तो उसके लिए मैं आप से क्षमा मांगता हूँ और मैं आपके द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा करता हूँ। पुच्छिऊण मए तुब्ध, झाणविग्यो य जो कओ। णिमंतिया य भोगेहिं, तं सव्वं मरिसेहि मे ॥५७॥ कठिन शब्दार्थ - पुच्छिऊण - पूछ कर, झाणविग्यो - ध्यान में विघ्न, णिमंतिया - निमंत्रित करके, भोगेहिं - भोगों के लिए, मरिसेहि - क्षमा करे (सहन करें), मे - मुझे। भावार्थ - मैंने आप से प्रव्रज्या का कारण पूछ कर जो आपके ध्यान में विघ्न किया है और भोगों के लिए निमंत्रित करके आपका जो अपराध किया है उन सभी अपराधों के लिए आप मुझे क्षमा प्रदान करें। . ____ एवं थुणित्ताण स रायसीहो, अणगारसीहं परमाइ भत्तिए। सओरोहो सपरियणो सबंधवो, धम्माणुरत्तो विमलेण चेयसा॥५॥ कठिन शब्दार्थ - थुणिताण - स्तुति करके, रायसीहो - राजसिंह, अणगारसीहं - अनगारसिंह, परमाइ भत्तिए - परम भक्ति से, सओरोहो - अन्तःपुर सहित, सपरिवणो - सपरिजन-परिजन सहित, सबंधवो - बंधुजनों सहित, धम्माणुरत्तो - धर्म में अनुरक्त, विमलेण चेयसा -निर्मल चित्त से। . भावार्थ - इस प्रकार राजाओं में सिंह के समान पराक्रमी वह राजा श्रेणिक कर्म रूपी शत्रुओं का नाश करने में सिंह के समान उस अनाथी मुनि की उत्कृष्ट भक्तिपूर्वक स्तुति करके अपने अन्तःपुर सहित, परिवार सहित और बन्धुओं सहित मिथ्यात्व-रहित निर्मल चित्त से धर्म में अनुरक्त बन गया अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्त कर ली। विवेचन - प्रस्तुत गाथा में पराक्रम और शूरवीरता की दृष्टि से राजा श्रेणिक को 'राजसिंह' कहा गया है तथा अनाथीमुनि को तप, संयम आदि उत्कृष्ट क्रियाओं में पराक्रम करने तथा कर्मरूपी मृगों अथवा रागद्वेषादि शत्रुओं का संहार करने से 'मुनिसिंह' कहा गया है। - 'सओरोहो सपरियणो सबंधवों' से यह भी सिद्ध होता है कि राजा श्रेणिक अपने समस्त अन्तःपुर, बंधुजन एवं राजपरिवार सहित मण्डिकुक्षि नामक उद्यान में आया था और राजा सहित सभी धर्मानुरागी बन गये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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