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________________ उत्तराध्ययन सूत्र - बीसवाँ अध्ययन विसं तु पीयं जह कालकूडं, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसो वि धम्मो विसओववण्णो, हणाइ वेयाल इवाविवण्णो ॥ ४४ ॥ कठिन शब्दार्थ - विसं विष, पीयं- पीया हुआ, कालकूडं - कालकूट, हणाई - विनाश कर देता है, कुग्गहीयं - उलटा पकड़ा हुआ, सत्थं शस्त्र, धम्मो धर्म, विसओaaण्णो - विषय विकारों से युक्त, वेयाल - वैताल-पिशाच, इव जैसे, अविवण्णो अनियंत्रित - वश में नहीं किया हुआ । भावार्थ जिस प्रकार पीया हुआ कालकूट नामक विष प्राणों का नाश कर देता है और जिस प्रकार उलटा पकड़ा हुआ शस्त्र अपना ही घात करता है जैसे अविपन्न - सम्यक् प्रकार मंत्र आदि से वश में न किया हुआ वैताल (पिशाच ) अपने साधक को ही मार डालता है उसी प्रकार शब्दादि विषयों से युक्त हुआ यह धर्म भी द्रव्य-लिंगी साधु का विनाश कर देता है अर्थात् वह नरक आदि दुर्गतियों में दुःख भोगता रहता है। जो लक्खणं सुविणं पउंजमाणे, णिमित्त कोऊहल - संपगाढे । ३६० ***** 1 Jain Education International - - कुहेड विज्जासवदारजीवी, ण गच्छइ सरणं तम्मि काले ॥ ४५ ॥ कठिन शब्दार्थ - लक्खणं - लक्षण, सुविणं स्वप्न शास्त्र का, पउंजमाणे - प्रयोग करता है, णिमित्त कोऊहल संपगाढे निमित्त शास्त्र और कौतुक कार्य (इन्द्रजाल आदि प्रयोग) में अत्यंत आसक्त, कुहेडविज्जासवदारजीवी - कुहेट (असत्य एवं आश्चर्योत्पादन जादूगरी आदि) विद्याओं से एवं आस्रव द्वारों से हिंसादि पाप कर्म के हेतु रूप कार्यों से जीविका चलाता है, तम्मिकाले उस समय में । - - - For Personal & Private Use Only *********** - भावार्थ - जो साधु लक्षण शास्त्र और स्वप्नशास्त्र का प्रयोग करता है अर्थात् स्त्री-पुरुषों के शारीरिक चिह्नों द्वारा शुभाशुभ फल बतलाता है और स्वप्नों का शुभाशुभ फल बतलाता है तथा जो भूकम्पादि निमित्त शास्त्र और कौतुकादि के प्रयोग करने में आसक्त रहता है और जो कुटक विद्या (आश्चर्य में डाल देने वाली मंत्र-तंत्रादि विद्या) जिससे हिंसा झूठ आदि आस्रवों का आगमन होता है उस विद्या से आजीविका करता है, वह साधु कर्मों का फल भोगने के समय किसी की शरण को प्राप्त नहीं होता अर्थात् अपने कर्मों का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है। www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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